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तृप्ति
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तभी मार्मिक प्रभाव का उद्भव होता है । यहां उपाध्यायजी महाराज के तर्क की कोई करामात नहीं है, बल्कि उनकी अपनी भावप्रेरित प्रतीति है । जब हमें भी इसकी प्रतीति हो जाएगी, तब हम भी सोत्साह उक्त परम तृप्ति के मार्ग पर दौड़ लगायेंगे । फलस्वरूप जगत के जड़ भोजन की और गंदे पेय पदार्थों की मोहमूर्च्छा मृतप्रायः बन जाएगी । ज्ञान-क्रिया और समता भाव का जीवात्मा में प्रादुर्भाव होगा और तदुपरान्त मुनिजीवन की उत्कट मस्ती प्रकट होगी, पूर्णानन्द की दिशा में महाभिनिष्क्रमण होगा । वह सारे संसार के लिये एक चमत्कारपूर्ण अद्भुत घटना होगी । परिणाम यह होगा कि असंख्य जीव, मुनिजीवन के प्रति आकर्षित होंगे, उससे उत्कट प्रेम करने लगेंगे और उसे अपनाने के लिये उत्सुक बन कर सोत्साह प्रागे बढ़ेंगे ।
अतः हे जीव ! क्षणिक तृप्ति का पूर्णरूप से परित्याग कर परम / शाश्वत् तृप्ति की प्राप्ति हेतु मंगल पुरुषार्थ का श्री गणेश करो । स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी ।
ज्ञानिनो विषयः कि तैयैभवेत् तृप्तिरित्वरी ।। २ ।। ७४ ।।
अर्थ :- यदि ज्ञानी को अपने ज्ञानादि गुणों से कालान्तर में कभी विनाश न हो, ऐसी पूर्ण तृप्ति का अनुभव हो तो जिन विषयों को सहायता से अल्पकालीन तृप्ति है, ऐसे विषयों का क्या प्रयोजन !
विवेचन : पांच इन्द्रियों के प्रिय विषयों का आकर्षण तब तक ही संभव है, जब तक आत्मा ने स्वयं में झांक कर नहीं देखा है, वह श्रन्तर्मुख नहीं हुई है । उसके ज्ञान-नयन खोल कर अपनी ओर देखने भर की देर है कि उसे ऐसे अभौतिक रूप, रंग, गंध, स्पर्श और रसादि के दर्शन होंगे कि उसकी अनादिकाल पुरानी अतृप्ति क्षणार्ध में ही खत्म हो जायेगी । सदा-सर्वदा के लिये उसके पास रहने वाली अनुपम तृप्ति की झांकी होगी ! ऐसी अद्भुत तृप्ति की प्राप्ति के पश्चात् भला, कौन जगत के पराधीन, विनाशी और अल्पजीवी विषयों की ओर आकर्षित होगा ?
हृदय - मंदिर की देवी - प्राणप्रिया के मंजुल स्वरों की मृदुता और प्रीतिरस से आप्लावित भक्तगणों की मीठी बोली
सुनकर जो तृप्ति
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