________________
सप
४७२
गजसुकुमाल मुनि, खंधक मुनि आदि मुनिश्रेष्ठ एवं चंद्रावतंसक जैसे राजा-महाराजाओं को याद करो....! परिसह और उपसर्ग उन को उपद्रव रुप नहीं लगे थे ।
हाँ, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ध्येय का निर्णय हो जाना चाहिये ! धनसंपदा की भांति ही तुम्हारे मन में परम तत्त्व की प्राप्ति की भावना उजागर हो जानी जाहिये। जिस तरह धन के बिना धनार्थी को कोई प्रिय नहीं, ठीक उसी तरह मुमुक्ष को बिना परमतत्त्व के कोई प्रिय नहीं ! यह सोच कर वह परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए तपश्चर्या करें ! परिणाम यह होगा कि एकाघ-दो उपवास क्या, महिने-दो महिने के उपवास भी उसे सरल लगेंगे ! घंटों तक ध्यानस्थ रहना उसके लिए कष्टप्रद नहीं होगा ।
जिस तरह इस विश्व में सब से प्रिय वस्तु पैसा है, उसी तरह विवेकशील मुमुच के लिए अत्यधिक प्रिय वस्तु परम तत्त्व ही हैं । उसे पाने के लिए जो कोई कष्ट सहे, एक तरह से वह तप ही है। ऐसा तप उसे सरल, सुगम और उपादेय प्रतीत होता है और वह अदम्य उत्साह के साथ उसकी अाराधना करता है !
सदुपायप्रवृत्तानानुपेयमधुरत्वतः ।
जानिनां नित्यमानन्दवृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥४॥२४४ अर्थ :- अच्छे उपाय में प्रवृत्त शानी ऐसे तपस्वियों को मोक्ष रुपी साध्य की
स्वादुता से उसके आनन्द में सदैव अभिवृद्धि होती है । विवेचन : जहाँ मीठापन वहाँ अानन्द !
जहाँ मिष्टान्न का भोजन वहाँ आनन्द ! जहाँ मीठे शब्दों की खैरात वहाँ आनन्द ! जहाँ मधुर-मिलन वहाँ आनन्द ! अरे, मीठेपन में हो मानन्द का अनुभव होता है। लेकिन ज्ञानियों को मिष्टान्न आनन्द नहीं देता ! मृदु शब्दों के श्रवण में उन्हें रस नहीं, और ना ही मधुर-मिलन की उन्हें उत्कंठा होती है । तब भला, उन का जीवन कसा नीरस, आनन्द विहिन उल्लासहीन होगा ?
महीं, नहीं ! उन का जीवन आनन्द से भरपूर होता है ! रसभीना होता है ! उल्लास से परिपूर्ण होता है । जामते हो वे, यह आनन्द कहाँ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org