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ज्ञानसार
से प्राप्त करते हैं ? साध्य की मधुरता में से ! और उनका एकमेव साध्य है मोक्ष ! मोक्ष-प्राप्ति ! शिवरमणी के मधुर मिलन की कल्पना मात्र से माधुर्य बरसता है ! यह माधुर्य तपस्वीगण को आनन्द से भर देता है ! शिवरमणी से मिलने का तपस्वीजनों ने एक अच्छा उपाय पकड लिया है तपश्चर्या का, देह-दमन का और वत्तियों के शमन का ।
तपस्वीजनों के पास ज्ञानदृष्टि जो होती हैं, वे इस उपाय से साध्य की निकटता खोज निकालते हैं | जैसे जैसे साध्य सन्निकट होगा, माधुर्य में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है और वे अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करते हैं । क्रमश: वह आनन्द बढ़ता ही जाता है ।। 'मेराग्यरति' ग्रंथ में कहा गया है : रते: समाधावरतिः क्रियासु
नात्यन्ततीवास्वपि योगिनां स्यात् । अनाकुला वहिनकणाशनेऽपि
न कि सुधापानगुरणाच्चकोराः ॥" "योगीजनों को समाधि में रति-प्रीति होने से अत्यंत तीव्र क्रिया में भी परति-अप्रीति कभी नहीं होती ! चकोर पक्षीसुधारसपान करने का चाहक होने से अग्नि-कण भक्षण करते हुए भी क्या वह व्याकुलता-विरहित नहीं होता ?"
मधुरता के बिना प्रानन्द नहीं और बिना आनन्द के कठोर धर्मक्रिया दीर्घावधि तक टिकती नहीं ! वैसे मधुरता और आनन्द, कठोर धर्माराधना में भी जीव को गतिशील बनाता है : प्रगति कराता है ।
यहां यह स्पष्ट किया गया है कि तपस्वी को ज्ञानी होना नितान्त आवश्यक है ! यदि तपस्वी प्रज्ञानी और गँवार होगा तो उसे कठोर धर्म-क्रिया के प्रति अप्रीति होगी, अरति होगी। भले ही वह धर्म-क्रिया करता होगा, लेकिन वह मधुरता का अनुभव नहीं करेगा । ज्ञान उसे साध्य-मोक्ष के सुख की कल्पना देता है । और वह कल्पना उसे मधुरता प्रदान करती है। उस से वह आनन्दभरपूर बन जाता है! यही आनन्द उस की कठोर तपश्चर्या को जीवन देता है । ज्ञानयुक्त तपस्वी की जीवनदशा का यहां कैसा अपूर्व दर्शन कराया है ! हम ऐसे तपस्वी
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