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गुणस्थानक ]
[ २१ देशविरति का प्रभाव
यहां आत्मा अनेक गुणों से युक्त हो जाती है । जिनेन्द्र-भक्ति, गुरू-उपासना, जीवों पर अनुकम्पा, सुपात्रदान, सत्शास्त्र-श्रवण, बारह व्रतों का पालन, + प्रतिमाधारण ............. वगैरह बाह्य तथा अभ्यंतर धर्म-आराधना से आत्मा का जीवन शोभायमान होता है । ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थानक
यहां अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय नहीं होता । यहाँ 'संज्वलन' कषायों का उदय होतो है । उससे निद्रा-विकथादि प्रमाद का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है । इसलिये इस भूमिका में रही हुई आत्मा को 'प्रमत्त संयत' कहा जाता है ।।
_ 'श्री प्रवचन सारोद्धार' ग्रन्थ में 'प्रमत्त संयत' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है :
'संयच्छति स्म-सर्वसावधयोगेभ्यः सम्यगुपरमति स्मेति संयतः । प्रमाद्यति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषानिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदति स्मेति प्रमत्तः, स चासो संयतश्च प्रमत्तसंयतः ।'
सर्व सावद्ययोगों से जो विराम पाता है, उसे 'संयत' कहते हैं । मोहनीयादि कर्मों के उदय से तथा निद्रादि प्रमाद के योग से संयमयोगों में अतिचार लगाता है, इसलिये उसे प्रमत्त कहते हैं । सर्वविरति का प्रभाव
आत्मगुणों के विकास की यह एक उच्च भूमिका है । यहाँ आत्मा क्षमा-आर्जव-मार्दव-शौच-संयम-त्याग-सत्य-तप-ब्रह्मचर्य - आकिंचन्य, इन दस यतिधर्मों का पालन करती है । अनित्यादि भावनाओं से भावित होकर विषयकषायों को वश में रखती है। सर्व पापों के त्यागरुप पवित्र जीवन जीती है। किसी भी जीव को वह दुःख नहीं देती है । ७. अप्रमत्त संयत-गुणस्थानक
यहां संज्वलन कषायों का उदय मंद हो जाने से निद्रादि प्रमाद + श्रावक की ११ प्रतिमाओं का वर्णन देखो ‘पंचाशक' प्रकरण में ।
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