________________
२८ ]
[ ज्ञानसार 'सम्यक्त्व' की महत्ता बताते हुए उपाध्यायजी यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' प्रकरण में कहा है :
'कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् ।
सम्यक्त्वमुच्यते सारः सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ।। 'आँख में जैसे पुतली, पुष्प में जैसे सुगंध, उसी प्रकार सब धर्मकार्यों में 'सम्यक्त्व' सारभूत है ।'
आत्मा की इस अवस्था में अनन्तानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है । उसके प्रभाव से आत्मा कोई व्रत-नियम नहीं ले सकती । हालांकि यथोक्त तत्त्वों की रुचि जरुर होती है ।
सम्यक्त्व का प्रभाव
सम्यक्त्व का गुण आत्मा में प्रगट होने के बाद प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य, ये पांच गुण आत्मा में प्रगट हो जाते हैं ।
कृपा-प्रशम-संवेग-निर्वदास्तिक्य-लक्षणाः । गुणा भवन्ति यच्चित्ते, सःस्यात्सम्यक्त्वभूषितः ।।
श्री रत्नशेखरसूरि यह समकिती आत्मा परमात्मा, सद्गुरू और संघ की सद्भक्ति करता है तथा परमात्मशासन की उन्नति करता है । भले ही उसमें कोई व्रत-नियम न हो । कहा है :
देवे गुरौ च संघे च सद्भक्ति शासनोन्नतिम् ।
अवतोऽपि करोत्येव स्थितस्तुर्ये गुणालये ॥ ५. देशविरति-गुणस्थानक
'सर्वविरति' गुण का आवारक प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय से यहां आत्मा, सर्व सावधयोग से कुछ अंश तक विराम पाती है। (देशअंश में, विरति-विराम प्राप्त करना ।) अर्थात् पापव्यापारों का सर्वथा त्याग नहीं करती है परन्तु कुछ अंश तक त्याग करती है । १४सर्व विरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति इति प्रत्याख्यानावरणाः ।
-प्रवचनसारोद्धार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org