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गुणस्थानक ] में उसे कुछ देर लगती है । [एक समय से लेकर छ आवलिका तक] वहाँ तक वह सास्वादन कहा जाता है । 'सास्वादन' का प्रभाव
यहां अति अल्पकाल में जीव औपशमिक सम्यक्त्व का रहा सहा आस्वादन करता है ।
जिस प्रकार खीर का भोजन करने पर उल्टी हो जाय, किन्तु उसके बाद भी उसकी डकारें आती हैं, उसी तरह यहां औपशमिक समकित से भ्रष्ट होने पर भी, जहां तक मिथ्यात्व दशा को प्राप्त न करे वहाँ तक औपशमिक सम्यक्त्व का आस्वादन रहता है । ३. मिश्र-गुणस्थानक
मिथ्यात्वदशा के बाद ऊपर चढ़ते हुए दूसरी दशा मिश्रगुणस्थानक की होती है । 'सास्वादन-गुणस्थानक' तो नीचे गिरते हुए जीव की एक अवस्था है । 'मिश्र' का अर्थ है सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का मिश्रण, यह मिश्र-अवस्था मात्र एक अन्तमुहर्त काल तक रहती है। आत्मा की यह एक विलक्षण अवस्था है । यहां जीव में धर्म-अधर्म दोनों पर समबुद्धि से श्रद्धा होती है । 'गुणस्थानक-क्रमारोह' प्रकरण में कहा है -
तथा धर्मद्वये श्रद्धा जायते समबद्धितः ।
मिश्रोऽसौ भण्यते तस्माद् भावो जात्यन्तरात्मकः ॥१५।। मिश्रदृष्टि का प्रभाव
यहां आत्मा अतत्त्व का या तत्त्व का पक्षपाती नहीं होता । इस अवस्था में जीव परभव का आयुष्य नहीं बांधता है और मरता भी नहीं है । ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक
स्वाभाविकता से या उपदेश से यथोक्त तत्त्वों में जीव को रूचि हो, वह सम्यक्त्व कहलाता है ।
यथोक्तेषु च तत्त्वेषु रुचिर्जीवस्य जायते । निसर्गादुपदेशाद्वा सम्यक्त्वं हि तदुच्यते ॥
- श्री रत्नशेखरसूरि
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