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वृष्टि भी होती हो, तब शमरस की बाढ आते देर नहीं लगती। और बाढ़ के प्रबल प्रवाह में वासना के वृक्ष उखड़ते विलंब नहीं लगता।
जब करुणा को/जीवदया की नदी में शमरस रूपी बाढ़ आती है, तब सर्व प्रथम जीवात्मा के मन में प्राणी मात्र के लिये 'सव्वे जीवा न हंतवा'- 'संसार के सभी जीवों की हत्या नहीं करनी चाहिये, किसी तरह की पीडा नहीं पहँचानी चाहिये', ऐसी करूणा प्रकट होनी चाहिये। करूणा के साथ-साथ ध्यान-धारा का प्रवाहित होना भी जरूरी है।
मतलब, तीसरा ध्यान-योग है, जिसका अनुसरण जीवात्मा के लिये अत्यन्त जरुरी है । 'ध्यानं स्थिरोऽध्यबसाय :' 'श्री ध्यान विचार' ग्रंथ में, स्थिर अध्यवसाय को 'ध्यान' कहा गया है । आर्त-रौद्र यह द्रव्यध्यान है, जब कि आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय रुपी धर्मध्यान भावध्यान है । 'पृथक्त्त्व वितर्क सविचार' रूपी शुक्लध्यान का पहला भेद 'परमध्यान' है । परम अादरणीय श्री मलयगिरि महाराज ने श्री आवश्यक सूत्र में धर्मध्यानी के निम्नांकित लक्षणों का वर्णन किया है :
सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निभओ निरासो अ ।
वेरग्गभाबियमणो झारणम्मि सुनिच्चलो होइ ।। _ 'जो जगत-स्वभाव से परिचित है, निर्लिप्त है, निर्भय है, स्पृहारहित है और वैराग्य भावना से अोतप्रोत है, वही ग्रात्मा ध्यान में निश्चल/तल्लीन रह सकती है ।' ऐसी महान ग्रात्मा जिस वेग से धर्मध्यान की ओर अग्रसर होती जाती है, उसी अनुपात से उसके हृदयवारिधि में उपशम-तरंगें उठती जाती हैं, शमरस की प्रलयंकारी बाढ पाती है । और विकार-वासना के वृक्ष प्रानन फानन में धराशायी हो जाते हैं ।
ज्ञान-ध्यान-तपःशील-सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो ।
त नाप्नोति गुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वितः ।।५।।४५।। अर्थ : जो गुण, ज्ञान-ध्यान तप शील मौर समकितधारी साधु भी प्राप्त नहीं
कर सकता, वह गुण शमयुक्त साधु आसानी से प्राप्त कर लेता है। विवेचन :- भले ही नौ तत्वों का बोध हो, किसी एक प्रशस्त विषय में सजातीय परिणाम की धारा प्रवाहित हो, अनादिकालीन अप्रशस्त
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