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________________ ज्ञानसार है, 'शास्त्रार्थ-प्रतिसंधानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्ति :।' क्या एवरेस्टप्रारोहक, प्रारोहण-गाइड का शत प्रतिशत अनुसरण नहीं करते ? अपनी प्रवृत्ति में क्रियाशील नहीं रहते ? प्रवृत्ति करते हुए आनंदित नहीं होते ? माईड (मार्गदर्शक) के प्रति उनके मन में प्रीतिभाव और भक्ति नहीं होती ? यही बात समाधि-शिखर के प्रारोहक के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है । - समाधि शिखर के विजेता बनते ही मुनिजन/योगी महापुरुष अन्तरंग क्रियायुक्त बनता है। वह उपशम द्वारा ही विशुद्ध बनता है। तब उसे 'असंग अनुष्ठान' की भूमिका प्राप्त होती है। जिसे सांख्य दर्शन में प्रशांत वाहिता, बौद्ध दर्शन में 'विसभागपरिक्षय'शैवदर्शन में 'शिववर्म' और जैनदर्शन में 'असंग अनुष्ठान' की संज्ञा दी गयी है। इसे संपन्न करने के लिये शास्त्र के आधार की आवश्यकता नहीं होती। वल्कि जिस तरह चन्दन में सौरभ मिली है, उसी तरह उनमें (मुनि योगी में) अनुष्ठान आत्मसात् होता है और यह अनुष्ठान जिनकल्पी महात्मा वगैरह में सदा-सर्वदा होता है । ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः शमपूरे प्रसर्पति । विकारतीरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥५॥४। अथ : ध्यान रुपी सतत वृष्टि से दया रूपी सरिता में जब उपशम रूपी उत्ताल तरंग उछलने लगती हैं, तब तट पर रहे विकार-वृक्ष जड़-मूल सी उखड जाते हैं विवेचन : गंगा-यमुना अथवा ब्रह्मपुत्रा नदो में आयो प्रलयंकारी बाढ को देखने का कभी मौका मिला है ? तट पर लहराते-इठलाते उन्नत वक्षों को क्षणार्ध में बाढ़ का भोग वन, धराशायी होते देखा है ? दयाकरूणा की सिंधु सदृश सरयु में जव शमजल की प्रलयंकारी बाढ़ आती है. तब अनादि काल से तट पर रहे फलते-फूलते मौतिक पौदगलिक विषयवामना के गवोन्नत वृक्ष, गगनभेदी आवाज के साथ ढहते देर नहीं लगती। लेकिन किसी सरिता में बाढ़ कब आती है ? जब निरन्तर मूसलाधार बारिश होती है ! ठीक उसी भाँति आत्मप्रदेश पर दया की नदी मंथर गति से बहती हो और तिस पर अविरत रूप से धर्म-ध्यान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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