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________________ समदर्शी योगीजन विद्या-विवेकसंपन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में कोई भेद नहीं करते । बल्कि वे इन सब में समान रुप में स्थित आत्मद्रव्य को ही परिलक्षित करते हैं। उनके मन में न तो किसी ब्राह्मण के प्रति प्रीतिभाव होता है, ना ही किसी चांडाल के प्रति घणा। ना ही गाय के प्रति दया भाव होता है, ना ही कुत्ते के लिये द्वष-भाव । जीवात्मा के दृष्टिकोण में जहाँ 'पर्याय' प्रधान बन जाता है, वहां विषमता दबे पाँव आ ही जाती है । और फिर वह अकेली नहीं आती, बल्कि अपने साथ राग-द्वेष, मत्सरादि को भी ले पाती है । पाहरुक्ष निर्योग, श्रयेद् बाह्यक्रियामपि । बोगारुढः शमादेव, शुध्यत्यन्तर्गतक्रियः ॥३।।४३।। अर्थ : समाधि लगाने का इच्छुक साधु बाह्याचार का भी सेवन करे, अभ्यन्तर क्रियाओं से युक्त योगारुढ योगी समभाव से शुद्ध होता है। विवेचन : जिस आत्मा के अन्तर में समाधियोग ग्रहण करने की भावना पैदा हुई हो, वह प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान और वचनानुष्ठान द्वारा अपने में रहे अशुभ संकल्प-विकल्पों को दूर कर, शुभ संकल्पमय आराधक-भाव से सिद्धि प्राप्त करता है । परमात्म-भक्ति, प्रतिक्रमण, शास्त्र-पठन, प्रतिलेखन आदि परमात्मदर्शित नानाविध क्रिया-कलापों में जीवात्मा को न जाने कैसा स्वर्गीय प्रानन्द मिलता है ! हिमालय की उत्तुंग पर्वत-श्रेणियों पर विजय पाने का पर्वतारोहकों में रहा अदम्य उत्साह, 'एवरेस्ट' प्रारोहण की सूक्ष्मतापूर्वक की गयी भारी तैयारियाँ, पारोहण के लिये आवश्यक साज-सामान इकट्ठा करने की सावधानी ! इन सबमें महत्त्वपूर्ण है एक मात्र, 'एवरेस्ट'प्रारोहण की प्रवृत्ति ! मन में जगी तीव्र लालसा ! इसमें हमें कौन सी बात के दर्शन होते हैं ? कौनसी प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती ? ठीक यही बात यहाँ भी है। समाधियोग के उत्तग शिखर पर आरोहण करने उत्तेजित साधक आत्मा का उल्लास, अनुष्ठानों के प्रति परम प्रीति, उत्कट भक्ति एवं पौगलिक क्रीडा को तजकर सिर्फ 'समाधियोग' के शिखर पर चढ़ने की तीव्र प्रवत्ति आदि होना सहज है। साथ ही धर्मग्रन्थों में दिग्दर्शित मार्ग का अनुसरण करने के उसके सारे प्रयत्न भी स्वाभाविक ही हैं । परम आराध्य तार्किक शिरोमणि उपाध्यायजी महाराज ने भी 'योगबिशिका' में 'वचनानुष्ठान' की व्याख्या इस तरह की Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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