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ज्ञानसार
विषय-वासनाओं के निरोध स्वरुप उग्र तपश्चर्या हो, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिन-प्रणीत वचन और सिद्धान्तों के प्रति अटूट श्रद्धा हो, फिर भी यदि जीवात्मा के जीवन में 'शम' के लिये स्थान नहीं है, उस में समता नामक वस्तु का नामोनिशान नहीं है, समस्त विश्व को द्रव्यास्तिक नय से राग-द्वेषरहित पूर्ण चैतन्यस्वरुप समझने की कला का अभाव है, दृष्टि नहीं है, तो सब व्यर्थ है। इससे आत्मा का विशुद्ध अनन्त असीम ज्ञानमय स्वरुप प्रकट नहीं होता। उसे समग्र दृष्टि से पूर्णत्व प्राप्त नहीं होता । भगवान उमास्वाति ने श्री 'प्रशमरति' में कहा है-....
सम्यग्दृष्टिनिी विरतितपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः ।
तन लभते गुणं यं प्रशमगरणमुपाश्रितो लभते ॥२४३।।। जो स्वयं समकितधारी होते हुए भी अन्यों को मिथ्यात्वी समझता है, खुद ज्ञानी होते हुए भी दूसरों को मूर्ख समझता है, स्वयं श्रावक या श्रमरण होते हुए दूसरों को मोहान्ध मानता है, तपस्वी होते हुए दूसरों को तपस्वी नहीं समझता और उनके प्रति धिक्कार की दृष्टि से देखता है, ऐसे मनुष्य का चित्त क्रोध, मान, माया और स्पृहा से आकंठ भरा होता है । वह केवलज्ञान से कोसों दूर होता है ।
_चार-चार माह के निर्जल-निराहरा उपवास की घोर तपश्चर्या के वावजुद चार मुनियों ने संवत्सरी के दिन खाने वाले 'कुरगडु-मुनि' के प्रति घृणा-भाव प्रकट किया, अनुपशान्त बने....परिणाम यह हुआ कि केवलज्ञान की मंजिल उनसे दूर होती चली गयी । जब कि उपशमरुपो शान्त जलाशय में गोते लगाते 'कुरगडु मुनि' केवलज्ञान के अधिकारी बन गये ।
"लगातार अविश्रान्त तपश्चर्या करनेवाले और बीहड जंगल में नानाविध कष्ट-अनिष्टों का समतापूर्वक सामना करने वाले बाहुबली में किस ज्ञान की कमी थी ? क्या धर्मध्यान नहीं था ? क्या वे तप अथवा शील से युक्त न थे ? उनमें सब कुछ था । न थी तो सिर्फ उपशमवृत्ति । उपशमरस का उनमें अभाव था । फलतः केवलज्ञान की ज्योति प्रज्वलित न हुई । लेकिन उपशम-वृत्ति का प्रादुर्भाव होते ही केवलज्ञान-प्रद्योत प्रकट होते विलंब न लगा ।
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