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________________ ममोह विवेचन : मोहराजा ने भव-नगर की गली-गली में और राजमार्गों पर अपनी प्रौदयिक भाव की मजबूत जाल फैला रखा है और गली-गली में वास करती अनन्त-अनन्त जीवात्माएँ उसके सुहाने जाल में फंसकर निरन्तर विविध चेष्टाएँ करती रहती हैं । कारण, वे सब मोहराजा के माया-जाल को कतई समझ नहीं पाये हैं। वे इस स्थिति से बिल्कुल बेखबर जो हैं । जन्म, यौवन, जरा और मृत्यु में शोक-हर्ष करती हुई आत्माएँ तीव्र दुःख और क्लेष का अनुभव करती चटपटा रही हैं। लेकिन भवचक्र नगर में अवस्थित जीवात्मा, जो मूढता से मुक्त बन गयी है, औदयिकभाव जिसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते' फिर भी मोह की नाटयभूमि पर उसे नि:सहाय, दीन बन कर अब भी रहना पडा है, लेकिन स्व-और पर के जीवन में घटित विविध घटनाओं को देखने की प्रवृत्ति में आमूल परिवर्तन आ जाने के कारण, वह उसे सिर्फ 'मोहप्रेरित मोहक नाटक' समझ, उसके प्रति अनासक्त, उदासीन हो गयी है । उसे यह देखकर न खेद है ना कोई अानन्द ! वह स्थितप्रज्ञ जो बन गयी है ! समग्र सृष्टि को यहां एक नगर की संज्ञा दी गई है और नरकगति, मनुष्य गति, तिर्यंच गति और देवगति उसके प्रधान राजमार्ग हैं। इन्हीं राज-मार्गों के भागरुप अवान्तर-गलियों के रुप में चार गतियों के प्रवान्तर भेद हैं । इन गलियों में और राजमार्ग पर रहे असंरव्य, अनंत जीव इस नाटक के विभिन्न पात्र हैं, जिनकी विविध चेष्टाएँ नाटक का अभिनय है ! जब की समस्त नाटय-भूमि-रंगभूमि का सूत्र-संचालन , दिग्दर्शन स्वयं मोहराजा करता रहता है ! जिस तरह रंगभूमि पर जन्म का दृश्य हूबहू खडा कर दिया जाता है, मृत्यु का साक्षात् अभिनय किया जाता है, लेकिन वह वास्तविक नहीं होता ! केवल पात्रों के अभिनय-कौशल्य का कमाल होता है । दृष्टा स्वयं इस तथ्य को भलिभांति जानते हैं, समझते हैं ! अत: जन्म होने पर प्रसन्न नहीं होते और मृत्यु को लेकर शोक-विह्वल नहीं बनते ! ठीक उसी तरह सृष्टि की रंगभूमि पर जन्म, जरा और मृत्यु के प्रसंग उपस्थित होने पर, ज्ञानीपुरुष कतइ विचलित नहीं होते । क्यों कि वे इस तथ्य से अवगत हैं कि आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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