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ज्ञानसार
मोहराजा ने औदायिकभाव की मायाजाल समस्त विश्व पर सावधानी के साथ फैला दी है। अज्ञान, असंयम, प्रसिद्धता, छह लेश्याएँ, चार कषाय, तीन वेद, चार गति और मिथ्यात्व, इत्यादि औदयिक भाव के इक्कीस प्रधान अंग हैं। इस तरह क्षायोपशमिक-भाव के सभी अंग जोवात्मा को फंदे में डालने वाले, वशीभूत करने वाले नहीं हैं। लेकिन यदि वह अपने आप में अचेत बेसुध रहे तो वहां भी उसके लिए फंदा तैयार ही है ! अत: दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य की लब्धियाँ, मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञानादि में बंधते देर नहीं लगती, वह क्षणार्ध में फंस जाता है ।
जो आत्मा अशुभ-भाव के बंधन के वशीभूत नहीं होता, मोहराजा उसे अशुभ-भाव में फंसाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, देशविरति, सर्वविरति, उपशम-समकित, चारित्रादि में गतिशील होने के उपरांत भी यदि जीवात्मा ने प्रासक्ति की, राग-द्वेष किया तो समझिए मोह-जाल उसका शिकार करके ही रहेगी ! उस जाल को छिन्न-भिन्न, नेस्तनाबूद करने के लिए सूक्ष्म मति और युद्ध-कौशल्य की पूर्णरुप से आवश्यकता है। तभी उस का सर्वष्टि से उच्चाटन हो सकता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि मोहराजा भले अनेकविध बाह्यअभ्यन्तर आकर्षण पैदा करे, अपनी जाल फैलाये, जीवात्मा को उसको वशीभूत नहीं होना चाहिए, बल्कि उससे दूर रहना चाहिए। तब मोह का कुछ नहीं चलेगा । बार-बार प्रयत्न कर हार जायेगा। जिस तरह कोई व्यक्ति आकाश को मलिन करने के लिये कीचड उछाले तो आकाश मलोन नहीं होता, ठीक उसी तरह मोह द्वारा उछाले गये कीचड से आत्मा मलोन नहीं होगी, ना ही पाप को अधीन बनेगी !
कहा गया है कि अराग-अद्वेष के कवच को मोह के तीक्ष्ण तीर भी भेदने में पूर्णतया असमर्थ हैं !
पश्यन्नेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् ।
भवचक्रपुरस्थोऽपि, नाऽमूढः परिखिधते ॥४॥२८॥ अर्थ : अनादि अनंत कर्म-परिणामरुप राजा की राजधानी-स्वरुप भवचक्र
• नामक नगर में वास करते हुए भी एकेन्द्रियादि नगर की गली-गली में नित्य खेले जानेवाले परद्रव्य के जन्म-जरा और मृत्युरूपी नाटक को देखती हुई मोहविमुक्त प्रात्मा दुःली नहीं होती !
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