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________________ ४१ अमोह जायेंगे । लेकिन उस बात की पूरी तरह से सावधानी बरतनी होगी कि प्रात्म-तत्त्व से प्रेमभाव बढाते हुए कहीं पुद्गल अथवा उसके गुण के प्रति हमारे मन में प्रीति को भावना रुढ न हो जाएं ! हमें आत्मद्रव्य के साथ प्रेम करना है। अत: सबसे पहले हमारा ध्यान शुद्ध आत्म-द्रव्य पर ही केन्द्रित करना होगा। इस के लिए हमें 'मै शुद्ध आत्म-द्रव्य हूं,' की भावना से तरबतर होकर परपर्यायों में निहित 'अहंमैं' के भाव को सदा के लिए मिटा देना होगा। साथ ही शरीर के अंग-उपांग के रुप-रंग से आकर्षित हो मंत्रमुग्ध होने की वृत्ति को हमेशा के लिए तिलांजलि देनी होगी। मोह को पराजित करने के लिए परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज हमें शस्त्र और मंत्र-दो शक्तियां प्रदान कर रहे हैं। हमें इन दोनों महास्यक्तियों को ग्रहण कर मोह पर टूट पडना है, आक्रमण करना है। उसके साथ युद्ध के लिए सजग, सन्नद्ध होना है। और जब युद्ध ही करना है तो शत्रु के वार भी झेलने होंगे । बल्कि उनके प्रहारों का, आघातों का डटकर सामना करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में शरणामतिके लिए कोई स्थान नहीं । उसका एक प्रहार तो हमारे दस प्रहार ! युद्ध में एक ही संकल्प हो, भावना हो : 'अन्तिम विजय हमारा है।' ____ मनुष्य की जिंदगी ही युद्ध का मेदान है । इस में कई नरवीर युद्ध खेलकर मोहविजेता बने हैं । तब भला, हम क्यों न बनेंगे ? जब कि हमारे पास तो पूज्य-उपाध्यायजी द्वारा प्रसादम्प मिले शस्त्र और मंत्र जैसे दो वरदान हैं । यो न मुह्यति लग्नेषु भावेष्वौदयिकादिषु । प्राकाशमिव पङ्कन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥३॥२७॥ प्रर्थ : जो जीव लगे हुए प्रौदायिकादि भावों में मोहमढ नहीं होता है वह जीव जिस तरह कीचड़ से आकाश पोता नहीं जा सकता, ठीक वैसे ही वह पापों से लिप्त नही होता है । विवेचन : मोह की माया का कोई पार नहीं है । जिसे मोह के साथ युद्ध में उतरना है उसे उस की मायाजाल से भी बचकर रहना होगा। जो उस के मायाजाल को पूरी तरह समझ गया है, जान गया है, वह भूलकर भी उस में नहीं फंसेगा । शत्रु की मायाजाल एकवार समझ लेने पर भला, उसके प्रति मोह कैसा ? मोहित होने का सवाल ही कहां पैदा होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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