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मोह द्वारा प्रदत्त मंत्र 'अहं मम' - मैं और मेरा को सदा के लिए तजना होगा, भूला देना पड़ेगा ।
ज्ञानसार
"लेकिन यह भला कैसे संभव है ? अनादि काल से अहर्निश मैं इस मंत्र का जाप करता आया हूँ, वह मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है । इसे भूलना मेरे बलबूते की बात नहीं है । लाख चाहने पर भी मैं भूल नहीं सकता ।"
"कोई बात नहीं । लो यह दूसरा मंत्र । आज से हमेशा इस का जाप करते रहो " । और चारित्र - महाराज ने उसे दूसरा मंत्र दिया : " नाहं न मम ( मैं नहीं.... मेरा नहीं )
'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं' 'शुद्धज्ञानं' गुणो मम' |
अर्थ :
'नान्योऽहं न ममान्ये' चेत्यहो मोहास्त्रमुल्बणम् ||२||२६|| मोह का हनन करनेवाला एक ही अमोध शस्त्र है और वह है : 'मैं शुद्ध आत्म- द्रव्य हूं । केवलज्ञान मेरा स्थायी गुरण है । मैं उससे अलग नहीं और अन्य पदार्थ मेरे नहीं हैं ।' ऐसा चिंतन करना । विवेचन : "मैं धनवान नहीं, सौन्दर्यवान नहीं, पिता नहीं, माता नहीं, मनुष्य नहीं, गुरू नहीं, लघु नहीं, शरीरी नहीं, शक्तिशाली नहीं, सत्ताधारी नहीं, वकील नहीं, डॉक्टर नहीं, अभिनेता नहीं ! तो फिर मैं कोन हूँ ? ' मै सिर्फ एक शुद्ध आत्मद्रव्य हूं ।'
संसारके धन-धान्यादि मेरे नहीं, माता-पिता मेरे नहीं, पुत्र-पुत्रियाँ मेरे नहीं, सत्ता मेरी नही, शक्ति मेरी नहीं, स्वजन मेरे नहीं, रिद्धि-सिद्धियाँ मेरी नहीं ।' तो फिर मेरा क्या है ! 'शुद्ध ज्ञान केवलज्ञान मेरा है । में उससे अलग नहीं, बल्कि सभी दृष्टि से अभिन्न हूं ।'
यह भावना / विचार मोहपाश को छिन्न-भिन्न करने वाला अमोघ शस्त्र है, अणुबम है । मतलब यह है, कि शुद्ध आत्म-द्रव्य का प्रीतिभाव, आत्म-द्रव्य से अलग पुद्गलास्तिकाय के प्रीतिभाव को तहस-नहस करने में सर्वशक्तिमान है | सभी तरह से समर्थ है। जीवन का उद्देश्य होना चाहिए आत्म-तत्त्व से प्रेम करना और पुद्गल तत्त्व से कोसों दूर रहना । इसका परिणाम यह होगा कि जीबात्मा में जैसे-जैसे श्रात्म-तत्त्व का प्रीतिभाव बढता जायेगा उस अनुपात से पुद्गल प्रीति के बंधन टूटते
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