________________
अमोह
अहं-ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्थ जगदाध्यकृत् ।
अयमेव ही नपूर्वः प्रतिमन्त्रोऽपि मोह जित् ॥१॥२५॥ अर्थ : मोह राजा का मूलमंत्र हैं : मैं और मेरा। जो सारे जगत को
अन्धा अज्ञानी बनानेवाला है । जब कि इसका प्रतिरोधक मंत्र
भी है, जो मोह पर विजय हासिल करानेवाला है ! विवेचन : जो अंधा है, उसे पथभ्रष्ट होते-भटकते देर नहीं लगती । उसमें जो बाह्यरूपसे अंधा है वह अभ्यास के बल पर प्रयत्न करने पर सीधी राह चलता है, बिना किसी रोक-टोक के गन्तव्य-स्थान पर पहुंच जाता है। लेकिन जिस के प्रान्तर-चक्षों पर अंधेपन की पत जम गयी हैं, वह लाख कोशिश के बावजूद भी सन्मार्ग पर चल नहीं सकता ! जैसे सांप हमेशा टेढ़ा-मेढ़ा ही चलता है । सीधा चलना उसके स्वभाव में ही नहीं होता।
___ जीवात्मा के प्रान्तर-चक्षु यों ही बंद नहीं हैं, बल्कि उस पर मंत्र प्रयोग किया हुआ है । प्रात्मा स्वयं अपने पर ही इसप्रकार का मंत्र प्रयोग करता है, जो उसे मोहदेवता से विरासत में मिला हुआ है। मंत्रदान करते समय मोहदेवता ने उसे भली-भांति समझा दिया है कि : 'जब तक तुम इस मंत्र का प्रयोग करते रहोगे तब तक निर्वाध रुप से स्वर्गसुख का आनन्द लूटते रहोगे ! नानाविध रिद्धि-सिद्धियां तुम्हारे कदमों में आलोडन करती रहेंगी।' और बाह्य पौद्गलिक सुख सुविधाओं के लालची जीव को यह बात भा गयी, अंतर की गहराइयों में उतर गयी ! फलतः उसने अविलम्ब मंत्र को ग्रहण कर लिया : 'अहं-मम' ! और आज वह वन-नगर, घर-बाहर, मस्जिद-मंदिर, दूकानउपाश्रय-सर्वत्र इसी महामंत्र का जाप करता भटक रहा है। आज से नहीं अनादि काल से भटक रहा है। मोह के कारण उसकी दिव्यदृष्टि के द्वार बिल्कुल बंध हैं। वह मोक्ष-मार्ग देख नहीं पाता ।
इसी तरह भटकता हुमा वह चारित्ररूपी महाराजा के द्वार पहुँच जाता है । विनीत भावसे उनकी शरण ग्रहण कर अपने तन-मन के कष्ट, दुःख दूर करने का अनुनय करता है।
"यदि तुम्हें अपने तन-मन के समस्त दुःख, यातनाओं से मुक्ति पानी हो तो एक काम करना होगा !" - भुप्र"कहिए !"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org