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ज्ञानसार
नही मृत्यु पाती है । वह सहज ही जन्म-मरण का अभिनय करती है । अतः व्यर्थ ही शोक करने से क्या लाभ ? ।
विकल्पचपरात्मा, पीतमोहाऽऽसयो ह्ययम् ।
भवोच्चतालमत्ताल-प्रपञ्चमधितष्ठति ॥५॥२६॥ अर्थ : विकल्प रुपी मदिरा-पात्रों से सदा मोह-मदिरा का पान करनेवाला
जीवात्मा, सचमुच जहां हाथ ऊंचे कर, तालियां बजाने की चेष्टा की
जाती है वैसे संसार रुपी मदिरालय का प्राश्रय लेता है । विवेचन : संसार यह एक मदिरालय है । सुभग, सुन्दर और सुखद मोह-मादक मदिरा है । विकल्प मदिरा--पान का पात्र है ! अनादिकाल से जीवात्मा संसार की गलियों की खाक छान रहा है ! पौद्गलिकसुख और मोह-माया के विकल्पों में आकंठ डूब मदोन्मत्त बन गया है, नशे में धुत्त है । वह क्षणार्ध में तालियां बजाता नाचने लगता है तो पलक झपकते न झपकते करतल-ध्वनि करता सुध-बुध खो देता है ! क्षणार्ध में खुशी से पागल हो उठता है तो क्षणार्ध में शोक-मग्न बन क्रंदन करने लगता है ! क्षणार्ध में कीमती वस्त्र परिधान कर बाजार घूमता नजर आता है तो क्षणार्ध में वस्त्र-विहीन नंग-घडंग बन धुल चाटता दिखायी देता है !
अभी कुछ समय पहले 'पिता-पिता' कहते उनका गला भर आता है तो कुछ समय के बाद हाथ में डंडा ले, उस पर टूट पडता है ! एकदो क्षण पहले जो माता 'मेरा पुत्र मेरा पुत्र'....कहते हुए वात्सल्य से प्रोत-प्रोत हो जाती है, तो क्षण में ही शेरनी बन उसकी बोटी-बोटी नोचने के लिए पागल हो जाती है ! सुबह में 'मेरे प्राणप्रिय हृदयमंदिर के देवता,' कहनेवाली नारी शाम ढलते न ढलते 'दुष्ट, चांडाल' शब्दोच्चारण करती एक अजीब हंगामा करते देर नहीं करती !
मोह-मदिरा का नशा....वैषयिक सुखों की तमन्ना ! उस में अटका जीव न जाने कैसा उन्मत्त, पागल बन मटरगस्ती करता नजर आता है ? जबतक मोह-मदिरा के चंगुल से आजाद न हुआ जाए, विकल्प के मदिरा-पात्र फेंक न दिये जाए तब तक निर्विकार ज्ञानानन्द में स्थिर-भाव असंभव है ! जब तक ज्ञानानन्द में स्थिर न हो तब तक
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