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________________ मोह ४५ परम ब्रह्म में मग्न होना तो दूर रहा, उसका स्पर्श तक कठिन है । जबकी परम ब्रह्म में मग्नता साधे बिना पूर्णता, आत्म-स्वरुप की परिपूर्णता और अनंत गुरणों की समृद्धि पाना असंभव है ! स्थिरता के पात्र से ज्ञानामृत का पान करनेवाली जीवात्मा ही विवेका, विशुद्ध व्यवहारी बन सकती है । अर्थ : निर्मलं स्फटिकस्येव सहज रुपमात्मनः 1 अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो जडस्तत्र विमुह्यति || ६ ||३०|| श्रात्मा का वास्तविक सिद्ध स्वरुप स्फटिक की तरह विमल, निर्मल और विशुद्ध है । उसमें उपाधि का संबन्ध प्रारोपित कर अविवेकी जीव आकुल-व्याकुल होता है ! विवेचनः यदि स्फटिक रत्न के पीछे लाल कागज लगा हुआ है, तो वह स्फटिक लाल दिखायी देता है, तब अगर कोई तुम्हें पूछे: "स्फटिक कैसा है ? " तुम क्या जवाब दोगे ? 'स्फटिक लाल है !' यूँ कहोगे अथवा 'स्फटिक लाल दिखायी देता है ! आखिर जवाब क्या दोगे ? क्योंकि लालिमा तो उसकी उपाधि है, वह मूल रूप में तो लाल है ही नहीं ! ठीक उसी तरह हम आत्मा को लें। क्या वह मूल रूप में एकेन्द्रिय है ? द्वि-इंद्रिय है ? या पंचेन्द्रिय है ? उसका मूल रंग क्या श्याम, पीत, लाल अथवा गोरा है ? मोटापा, पतलापन, छरहरापन, ऊँचाई, चौडाई उस का वास्तविक रूप है ? क्या वह स्वाभाविक रूप में शोक, हर्ष, विषाद, राग द्वेष इत्यादि से युक्त है ? इन सब का उत्तर इन्कार में ही आएगा ! स्फटिक की श्यामलता, लालिमा, और गौरता को परिलक्षित कर उसे लाल पीला अथवा गोरा कहनेवाला मनुष्य मूर्ख है- एक नम्बर का शेखचिल्लो है । उसी भाँति जीवात्मा के एकेंद्रिय, द्वि-इंद्रिय, पंचेन्द्रिय स्वरूप को देखकर उसे एकेन्द्रिय, द्वि-इंद्रिय अथवा पंचेंद्रिय माननेवाला भी नीरा मतिमंद और अज्ञानी है । उसकी श्यामलता, गौरता और पीतता को निरख, उसे श्याम, पीत, और गौर समझनेवाला भी निपट मूर्ख के अलावा भला, क्या है ? आत्मा का श्याम स्वरुप, उसकी बदसूरती, उसके टेढे चक्र अंगोपांग को देखकर मनमें नफरत पैदा होती है, ठीक वैसे ही उसकी नौरता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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