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विवेक
सातिरसेष्वगुरूः प्रायद्धिविभूतिमसुलभामन्यैः । . . सक्तः प्रशमरतिसुखे न भजति तस्यां मुनि: संगम् ।।२५६।। या सर्वसुखर्राद्धः विस्मयनीयापि सात्वनगारद्धेः । नाति सहस्त्रभार्ग कोटिशतसहस्त्रगुणिताऽपि ॥२५७॥
-प्रशमरति "विश्व में अन्य जीवों को दुर्लभ वैसी ऋद्धि-लब्धि की विभूति पाकर और रस-ऋद्धि-शाता-गारव-रहित अरणगार भूलकर भी कभी उक्त लब्धि के सुख में आसक्तिभाव नहीं रखता । वह तो प्रशमरति के सुख में निमग्न होता है।"
___ "समस्त देवताओं की अद्भुत समृद्धि की गणना असंख्य बार की जाय फिर भी उसकी तुलना मुनि की आध्यात्मिक-संपत्ति के हजारवें भाग के साथ भी नहीं की जा सकती।"
विवेक-भेदज्ञान की गरिमामय पर्वतमालाओं पर अनुपम सुख बिखरा पड़ा है और अनुत्तर आत्म-समृद्धि के अक्षय भंडार भरे पड़े हैं। लेकिन इस पर्वतमाला पर आरोहण करने के पूर्व जीव को कतिपय महत्व की बातें ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है। १ धर्म-ध्यान में निमग्नता, ६. तृण-मणि के प्रति समष्टि २. भवोद्वेग
१०. स्वाध्याय-ध्यानपरायणता, ३. क्षमाप्रधानता,
११. दृढ अप्रमत्तता, ४. निरभिमान,
१२. अध्यवसाय-विशुद्धि, ५. मायारहित निर्मलता,
१३. वृद्धिंगत विशुद्धि, ६. तृष्णाविजय,
१४. श्रेष्ठ चारित्रशुद्धि, ७. शत्रु-मित्र के प्रति समभाव, १५. लेश्या-विशुद्धि, ८. आत्माराम,
तभी 'अपूर्वकरण" रूपी शिखर पर पहुँचा जा सकता है। मन में किया गया ऐसा दृढ संकल्प कि 'मुझे विवेक-गिरिराज पर आरोहण करना है,' उपयुक्त पन्द्रह बातों को प्रात्मसात् करने की अनन्य शक्ति प्रदान करता है। साथ ही शिखर पर पहुँचने के पश्चात् भी भेद-ज्ञान के
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