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भावपूजा
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के लिए द्रव्य - पूजा ही योग्य है । अतः उन्हें सदैव द्रव्यपूजा करनी चाहिये । द्रव्यपूजा भेदोपासनारूप है ।
परमात्मा सदा-सर्वदा पूज्य हैं, आराध्य हैं । वे अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, वीतरागता और अनंत वीर्य के एकमेव स्वामी हैं, साथ ही अजर, अमर एवं अक्षय गति को प्राप्त हैं । स्व. श्रात्मा से भिन्न ऐसे परमात्मा का आलंबन ग्रहण करना चहिए । वे उपास्य हैं और गृहस्थ उपासक है, वे सेव्य हैं और गृहस्थ सेवक है । वे आराध्य हैं और गृहस्थ आराधक है । वे ध्येय हैं और गृहस्थ ध्याता है ।
गृहस्थ उत्तम कोटि के द्रव्यों से परमात्मा की प्रतिमा का भक्तिभाव से पूजन करे । इस कार्य के लिए यदि उसे जयपायुक्त प्रारंभसमारंभ करने पड़े, तो भी अवश्य करे ! परमात्मा के गुणों की प्राप्ति हेतु उनकी अनन्य भक्ति और उत्कट उपासना करें ।
प्रश्न : सब क्या गृहस्थ के लिये भावपूजा निषिद्ध है ?
उत्तर : नहीं, ऐसो कोई बात नहीं है । वह चाहे तो भावनोपनितमानस, नामक पूजा कर सकता है । अर्थात् परमात्मा का गुणानुवाद गुरण - स्मरण और परम तत्त्व का सम्मान, गृहस्थ कर सकता है । यह एक प्रकार की भावपूजा ही है, लेकिन 'सविकल्प' भावपूजा । वह गीत, संगीत और नृत्य के द्वारा भक्ति में लीन हो सकता है ।
अलबत्त, अभेद उपासना रूप भावपूजा तो साधु ही कर सकता है । आत्मा की उच्च विकास - भूमिका पर स्थित निर्ग्रन्थ परमात्मा के साथ भेदभाव से मिल सकता है | परमात्मा के संग स्व- आत्मा तादात्म्य, तन्मयता प्राप्त करे, यहो है वास्तविक भावपूजा !
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द्रव्यपूजा और भावपूज के भेद यहाँ भेदोपासना और अभेदोपासना की दृष्टि से बताये गये हैं। साथ ही प्रभेदोपासना रूपी भावपूजा के एकमात्र अधिकारी केवल निर्ग्रन्थ मुनिश्रेष्ठों को ही माना है ।
परमात्म-स्वरूप के साथ आत्मगुणों की एकता की अनुभूति करने बाला मुनि कैसा परमानन्द अनुभव करता है, उसका वर्णन करने में शब्द और लेखनी दोनों असमर्थ हैं । वस्तुतः प्रभेदभाव के मिलन की मधुरता तो सवेदन का ही विषय है, ना कि भाषा का !
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