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इन्द्रिय-जय
मच्छीमार कांटे में बींध, पानी से ऊपर निकालता है अथवा अपने जाल को पत्थर पर पछाडता है. वारदार चाकु से छीलता है या उबलते तेल मैं तलता है, तब मछली की कैसी दुर्गति होती है ? स्पर्शन्द्रिय के सुख मैं मत्त बने गजेन्द्र को भी मृत्यु की शरण लेने को विवश बनना पड़ता है । मधुर स्वर का प्रेमी हिरण भी शिकारी के तीक्ष्ण तीर का शिकार वन जाता है।
इन बिचारे जीवों को तो एक-एक इन्द्रिय की परवशता होतो है, जब कि मनुष्य तो पांचों इन्द्रियों के परवश होता है । उसकी दुर्दशा कैसी ?
विवेकद्वीपहर्यक्षः, समाधिधनतस्करैः ।
इन्द्रियों न जितोऽसौ धीराणां धुरि गण्यते ॥८॥५६।। अर्थ :- जो विवेक रुपी गजेन्द्र का वध करने के लिये सिंह समान और
निर्विकल्प ध्यान रुपी समाधि-धन को लूटने वाले लुटेरे रुगीन्द्रयों से
जीता नहीं गया है, वह बीर नर पुगवों में अग्रगण्य माना जाता है। विवेचन :- जो धीर-गंभीर में भी धीर-गंभीर और श्रेष्ठ परमों में भी सर्वश्रेठ ! गगन भेदी गर्जना के साथ आगे बढ़ते काल-कराल केसरी को देखकर भी जिसमें भय का संचार तक न हो, ऐसी अट धोरता! साक्षात् मृत्यु सदृश बन-केसरी भी जिस के मुखमंडल की अद्वितीय अाभा निरख अपना मार्ग बदल दे-ऐसी उसकी बीरता !
एक -एक इन्द्रिय एक-एक बनकेसरी की भॉति बलशाली और शक्तिमान है, कुटिल निशाचार है । सावधान ! तुम्हारे प्रात्मांगरण में झलते गजेन्द्र का शिकार करने के लिये पंचेन्द्रिय के पांच 'नरभक्षी केसरी' आत्म-महल के आसपास घात लगाये बैठे हैं । तुम्हारे पात्ममहल के कण-करण में दबे समाधि-धन को लूटने के लिये दुष्ट निशाचर मार्ग खोज रहे हैं । ___कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी आँखों में धूल झोंक कर इन्द्रिय रूपी वनकेसरी और चोर अपना उल्लु सीधा न कर दे। अतः इन पर विजय पानी हो तो दृढ संकल्प कीजिए : "इन्द्रियजन्य सुख का, वैभव का मुझे उपभोग नहीं करना है।" और फिर देखिए, क्या चमत्कार होता है।
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