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________________ ज्ञानसार पतङ्गामृङ्गानीनेभ-सारंगा यान्ति दुर्दशाम् । एकेकेन्द्रिय दोषाच्छेद, दुष्टस्तैः किन पंचभिः ॥७॥५५॥ अर्थ :- पतंगा, भ्रमर, मत्स्य, हाथी और हिरण एक-एक इन्द्रिय के दोष से मृत्यु को पाते हैं, तब दुष्ट ऐसी पांच इन्द्रिों से क्या क्या न होगा? विवेचन : एक-एक इन्द्रिय की गुलामी ने जीवात्मा की कैसी दुर्दशा की है ? पतंगा दीप-शिखा के नेह में निरन्तर उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है । उसे पाने के लिये प्राणों की बाजी लगा देता है। उसके रूप और रंग को निरखकर मन ही मन सपनों के महल सजाता अबाध रूप से घूमता ही रहता है। एक पल के लिये भी रुकने का नाम नहीं लेता । चक्षुरिन्द्रिय द्वारा उत्पन्न रूप-प्रीति के वशीभूत हो, अपने आप पर से नियंत्रण खो बैठता है । वह बरबस प्रज्वलित दीपशिखा को आलिंगन कर बैठता है। लेकिन उसे क्या मिला ? आलिंगन मे प्यार मिला ? उत्साह और जोश में वृद्धि हुई? अमृतवर्षा हुई ? नहीं, कुछ भी नहीं मिला । मिली सिर्फ आग, चिंगारी की तपन और वह क्षणार्ध में जल कर खाक हो गया। अरे, उस भावुक भ्रमर को तो तनिक देखो ! मृदु सुगंध का बड़ा रसिया ! जहां सुगंध आयी नहीं कि बड़े मिया भाग खड़े हुए। होश खोकर बेहोश होकर ! लेकिन सूर्यास्त के समय जब कमल-पुष्प संपुटित होता है, तब यही रसिया भ्रमर उसमें अनजाने वन्द हो जाता है । फलत: उसकी वेदना का पारावार नहीं रहता। उसकी वेदना को देखने और समझने वाला वहाँ कोई नहीं होता । और जब दूसरे दिन कमल-पुष्प पुन : खिलता है, तब उसमें से इस अभागे प्रेमी का निर्जीव शरीर धरती पर लुढक जाता है। लेकिन कमल-दल को इसकी कहाँ परवाह होती है ? 'तू नहीं. और सही', सूक्ति के अनुसार वह निष्क्रिय, निष्ठुर बना रहता है । जब कि इधर पूर्व-प्रेमी का स्थान दूसरा ग्रहण कर लेता है ! और कमाल इस बात का है कि वह पूर्वप्रेमी की और दृष्टिपात तक नहीं करता। यही तो लंपटता है, जिसकी भोग बनी जीवात्मा अपने आप को बचा नहीं सकती और दूसरे की ओर नज़र नहीं डालती । रस में ओत-प्रोत मछली की दशा भी कोई अलग नहीं है, बल्कि वही होती है, जो भोले हिरण और भावुक भ्रमर की होती है। जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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