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इन्द्रिय-जय
बावजूद कुलांचे भरता, किलकारी मारता भागता ही रहा और जा पहुँचा रेगिस्तान में ! जहाँ देखो वहाँ रेत ही रेत ! जिसे उसने पानी से लबालब भरा जलाशय समझा, वह निकली रेत, सिर्फ धल के जगमगाते अगणित करण ! लेकिन उत्साह कम न हुआ, जोश में प्रोट न आयी । क्षणार्ध के लिए रूका और दूर-सुदूर तक देखता रहा । दुबारा जलाशय के दर्शन हुए। फिर दौड लगायी । जलाशय के पास जा पहुँचा । लेकिन जलाशय कहाँ ? वह तो सिर्फ मृगजल था, एक छलावा ! मगर हिरण को कौन समझाये कि रेगिस्तान में कहीं पानी मिला है, जो उसे मिलेगा...?
ठीक इसी तरह संसार के रेगिस्तान में इन्द्रिय-लोलुपता के वशीभूत हो, कुलांचे भरते जीवों को कौन समझाये ? जिस वेग से जीव इन्द्रियसक्ति का दास बना भागता रहता है, उसी अनुपात में उसकी वैषयिक-तृष्णा बढ़ती ही जाती है । क्लेश, खेद, असंतोष और अशान्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है । इसके बावजूद भी वह, समझने को कतइ तैयार नहीं कि इन्द्रियजन्य सुख से उसे तृप्ति मिलने वाली नहीं है । यही तो उसकी मानसिक जडता है, निपट मूर्खता और अव्वल दर्जे की अनभिज्ञता/अज्ञानता !
श्री उमास्वातिजी ने अपनी कृति 'प्रशमरति' में इसे लेकर तीखा उपालंभ दिया है
येषां विषयेषु रतिर्भवति न तान् मानुषान् गरणयेत् ।
'जिसे विषयों में तीव्र आसक्ति है, उसकी गणना मनुष्य में नहीं करनी चाहिये ।' अर्थात् जो जीव मनुष्यत्व से अलंकृत है, उसे इन्द्रियों के विषयों से क्या मतलब ? उसे विषयों से लगाव क्यों, प्रेम-भाव क्यों ? यदि इन्द्रियों के व्यापार से तन्मयता साधनी है, तो इसके लिये मनुष्य-भव नहीं । मानव-जीवन में तो ज्ञानामृत का ही पान करना है। उसमें ही परम तृप्ति का अनुभव करना है । जैसे-जैसे तुम ज्ञानामृत का पान करते जानोगे, वैसे-वैसे निकृष्ट, तुच्छ, अशुचिमय और असार ऐसे वैषयिक सुखों के पीछे दौडना कम होता जायेगा । इन्द्रियों के विषयों को आसक्ति खत्म होती जाएगी।
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