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परतें जम गयी हैं । फलत: इन परतों को दूर कर अक्षय खजाने को प्राप्त करने के लिये महापुरुषार्थ करना ही हितकारक है । जैसे-जैसे तुम एक के बाद एक इन परतों को हटाते जाओगे, वैसे-वैसे ज्ञान- कोष की उपलब्धि होती जायेगी और तुम्हें अपूर्व सुख-शान्ति का मन ही मन अनुभव हो जाएगा । लेकिन ऐसा महापुरुषार्थ करने के लिये तुम तभी समर्थ होंगे, जब तुम्हारे में इन्द्रिय-विषयक आसक्ति का पूर्ण रूप से अभाव होगा । तुम इन्द्रिय-पाशों से बिल्कुल मुक्त हो जाओगे । सावधान ! विषयासक्ति तुम्हें ज्ञान-घन हांसिल नहीं होने देगी। अपनी ओर से वह तुम्हारे मार्ग में हर संभव रोडा अटकायेगी, बाधायें पैदा करेगी और ऐसा भगीरथ पुरुषार्थ करने नहीं देगी । यह निर्विवाद सत्य है कि आज तक तुमने ज्ञान-धन पाने का पुरुषार्थ नहीं किया, उसके पीछे इन्द्रिय-परवशता ही मूल कारण है | श्रुतज्ञान ( ज्ञानधन ) पाने के पश्चात् भी अगर जीव इन्द्रिय-परतंत्रता का शिकार बन जाए तो प्राप्त ज्ञानधन लुप्त होते देर नहीं लगती। तभी श्री भावदेवसूरिजी ने कहा है :
ज्ञानसार
" जई चउदश पुव्वधरो, निद्दाईपमायाओ वसइ निगोए अनंतयं कालं ।" चौदह पूर्वधर महर्षि भी यदि निद्रा, विकथा, गारव में अनुरक्त / लीन हो जाए, तो वे भी अनन्तकाल तक निगोद में भटकते हैं । अर्थात् जब तक केवलज्ञान का निधान प्राप्त न हो, तब तक क्षरणाध के लिये भी इन्द्रिय- लोलुप बनने से काम नहीं चलता । निरन्तर जागृति और ज्ञानधन की प्राप्ति हेतु सदैव पुरुषार्थ करते ही रहना है ।
पुरः पुर: स्फुरत्तृष्णा, मृगतृष्णानुकारिषु ।
इन्द्रियार्थेषु धावन्ति त्यक्त्वा ज्ञानामृत जडाः || ६ || ५४ || अर्थ :- जिसको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तृष्णा है, ऐसे मूर्खजन ज्ञान रूपी अमृत रस का त्याग कर मृगजल समान इन्द्रियों के विषयों में दौड़ते हैं । विवेचन : हिरण को भला कौन समझाये ? न जाने वह किस खुशी में कुलांचे भरता दौडा जा रहा है ? यहाँ कहाँ पानी है ? यह तो नीरी सूर्य किरण की जगमगाहट है ! उसे कहाँ पानी मिलनेवाला है ? मिलेगा.... क्लेश, खेद और अथक थकान ! लेकिन हिरण कहाँ किसी की -सुननेवाला है ? वह तो निपट मूर्ख.... मतिमन्द ! लाख समझाने के
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