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ज्ञानसार
वर्ता अनेक विषय लुभावना रुप धारण कर तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे । इन्द्रियां सहज ही उसके प्रति अकर्षित होंगी मौर मनवा होश गँवा बैठेगा । बस, तुम्हारी पराजय होते पल का भी विलंब नहीं होगा । तुम्हारे विवेक - ज्ञान का यहीं अन्त हो जाएगा । फलस्वरुप तुम्हारे पास अनादिकाल से दबे पड़े निर्विकल्प समाधि - निधि की चोरी होते देर नहीं लगेगी । और तुम पश्चाताप के आँसू बहाते, हाथ मलते रह जाओगे । यदि चाहते हो कि ऐसा न हो, पश्चाताप करने की बारी न आये, तो अपने आप को कठोर आत्मनिग्रही बनाना होगा । जब विषय नानाविध रुप से सज-धज कर सामने आ जायें, तब तुम्हारे में उसकी मोर नज़र उठाकर देखने की भावना ही पैदा न हो । इन्द्रियाँ उसके प्रति प्राकर्षित ही न हों । ऐसी स्थिति में 'न रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी' | तुम विजेता बन जानोगे, स्वाश्रयी बन जाओगे । फिर भला दुनिया में किसकी ताकत है जो तुम्हें अपने संकल्प से विचलित कर सके ?
विषयादि के वियोग में जब इन्द्रियाँ प्राकुल- व्याकुल न हों, परमात्म-परायण बन विषयों को सदा-सर्वदा के लिए विस्मृत कर दे और चंचल मन स्थिर बन परमात्म- ध्यान की साधना में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान कर दे, तब धीर-गंभीर पुरुषों में भी धीर-गंभीर और श्रेष्ठ में तुम्हें श्रेष्ठतम बनते तनिक भी देर नहीं होगी ।
हालांकि इस संसार में उस व्यक्ति को भी धीर-गंभीर माना जाता है, जो अनुकूल विषयों के संयोग से प्रायः परमात्म ध्यान.... धर्म - ध्यान जैसी बाह्य क्रियानों में अपने आप को जुड़ा रखता है, लेकिन विषयों की अनुकूलता समाप्त होते ही उनकी धीर-गंभीर वृत्ति हवा हो जाती है, समाप्त हो जाती है । अतः अपने आप को भव - फेरों से बचाने के लिये विषय-वासनाओं का परित्याग करते हुए इन्द्रियों को सविकल्पनिर्विकल्प समाधि में लयलीन करना है ।
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