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________________ ज्ञानसार विवेचन : महायोगी ! शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं, उसका उपदेश देनेवाले होते हैं और उस में प्रतिपादित प्राचारों को स्व-जोवन में कार्यान्वित करने वाले होते हैं। जिसके जीवन में इस प्रकार त्रिवेणी का संगम है, वह महायोगी कहलाता है। और इन तीन बातों की एकमेव कुंजी है शास्त्रदृष्टि । बिना इसके, शास्त्रों को समझना और जानना असंभव है ! फलतः उपदेश देना और शास्त्रीय जीवन जीने का पुरुषार्थ कदापि नहीं होगा। महायोगी बनने की पहली शर्त है शास्त्रदृष्टि । नजर शास्त्रों की ओर ही लगी रहनी चाहिए। स्वयं आचार-विचार-वृत्ति और व्यवहार का विलीनीकरण शास्त्रों में ही कर देना चाहिए । शास्त्र से भिन्न उन की वाणी नहीं और विचार नहीं । शास्त्रीय बातों से अपनी वृत्ति और प्रवृत्तियों को भावित कर दी हो, विचार मात्र शास्त्रीय ढांचे में ढल गये हो, और मन ही मन दृढसंकल्प हो गया हो कि "शास्त्र से ही स्व और पर का आत्महित संभव है ।" अर्थात महायोगी ऐसी हीतकारी शास्त्रीय बातों काही उपदेश करें। शास्त्रनिरपेक्ष होकर जन-मन को भाने वाले शास्त्र-विरोधो उपदेश देने की चेष्टा न करें। आमतौर से सामान्य जनता की अभिरूचि शास्त्रविपरीत ही होती है, फिर भी महायोगी/ महात्मा जनाभिरुचि-पोषक शास्त्र-विरुद्ध उपदेश देने का उपक्रम न करें। अहितकारी उपदेश श्रमणश्रेष्ठ कदापि न दें। वह खुद का हित भी शास्त्रों के मार्गदर्शन के अनुसार ही साधने का प्रयत्न करें । जीवन की वृत्ति और प्रवृत्ति के लिए शास्त्रों का मार्गदर्शन उपलब्ध है । छोटी-बडी प्रवृत्तियाँ किस तरह की जाए इसके सम्बध में शास्त्र में स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं । साथ ही, सरल सुगम और सुन्दर विधि का भी नियोजन किया गया है । मुनिराज उसे अच्छी तरह आत्मसात् करें और तदनुसार अपना जीवन जीये। प्रसगोपात सुपात्र को इसका उपदेश भी दें ! जिसे मोक्ष-मार्ग की आराधना करनी हो, आत्मा के वास्तविक स्वरुप को जिसे प्रगट करना हो, उसे शास्त्र का यथोचित आदर करना ही होगा । शास्त्र भले ही प्राचीन हो, लेकिन वे अर्वाचीन की भांति नित्य नया संदेश देते हैं। जिसे आत्महित साधना है, उस के लिए सिवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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