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________________ नयविचार प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है । 'प्रमाण' एक पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक सिद्ध करता है । जब कि 'नय' उसी पदार्थ के अनंत धर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है और सिद्ध करता है । परन्तु एक धर्म का ग्रहण करते हुए अर्थात् प्रतिपादन करते हुए दूसरे धर्मों का खण्डन नहीं करता । 'प्रमाण' और 'नय' में यह भेद है। नय प्रमाण का एक देश (अंश)1 है। जिस तरह से समुद्र का एक देश [अंश] समुद्र नहीं कहलाता उसी तरह असमुद्र भी नहीं कहलाता। इसी तरह नयों को प्रमाण नहीं कहा जा सकता तथा अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता । . __श्री 'आवश्यक सूत्र' की टीका में श्रीयुत मलयगिरिजी ने प्रतिपादन किया है कि 'जो नय नयान्तर सापेक्षता से 'स्यात्' पदयुक्त वस्तु का स्वीकार करता है, वह परमार्थ से परिपूर्ण वस्तु का स्वीकार करता है, इसलिये उसका 'प्रमाण' में ही अन्तर्भाव हो जाता है । जो नयान्तर निरपेक्षता से स्वाभिप्रेत धर्म के आग्रह से वस्तु को ग्रहण करने का अभिप्राय धारण करता है वह 'नय' कहलाता है । क्योंकि वह वस्तु के एक अंश का ग्रहण करता है। 'नय' की यह परिभाषा नयवाद को मिथ्यावाद सिद्ध करती है। 'सव्वे नया मिच्छावाईणो' इस आगम की उक्ति से सभी नयों का वाद मिथ्यावाद है । नयान्तर निरपेक्ष नय को महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने 'नयाभास' कहा है । 'श्रीसम्मतितर्क' में सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी नयों के मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व का माध्यम इस प्रकार बताते हैं : यथा हि समुद्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं चाऽप्रमाणमिति । - जैन तर्कभाषायाम् इह यो नयो नयान्तरसापेक्षतया स्यात्पदलाञ्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स परमार्थतः परिपूर्ण वस्तु गृहणाति इति प्रमाण एवान्तर्भवति, यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेण अवधारणपूर्वक वस्तु परिच्छेत्तुमभिप्रेति स नयः । ---- आवश्यकसूत्र-टीकायाम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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