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________________ कर्मविपाक-चिन्तन जबकि उच्च कुल में पैदा हुए लोगों की कीर्ति-पताका तार-तार हो गयो ! उनका सौभाग्य और प्रादेयता मानो लुप्त हो गयी ! तीस करोड़ हिन्दुओं के सर्वमान्य धर्मगुरु शंकराचार्य को अकस्मात् जेल का आतिथ्य ग्रहण करना पड़ा, उनकी गो-रक्षा की मांग सरकार ने नहीं सुनी, और उन्हें शासकीय स्तरपर अनादर का भाजन बनना पड़ा ! . यह सब कर्मों का खेल है ! उसमें हर्ष-शोक का प्रश्न ही नहीं उठता । किसी कवि ने ठीक ही कहा है । कबहीक काजी कबहीक पाजी कबहोक हुआ अपभ्राजी; कबहीक कीति जगमें गाजी सब पुद्गल को है बाजी....! अर्थात् कभी-कभार तुम्हें 'काजी' के बहुमान से सम्बोधित कर दुनिया तुम्हें सम्मानित करती है, तो कभी 'पाजी' कहकर तुम्हारा सरेआम अपमान करती है ! कभी तुम्हारी कीर्ति-पताका सर्वत्र फहराती है तो कभी तुम्हारी कलंकगाथा दुनिया में फैल जाती है । यह सब कर्म की बाजी है । किसी ने ठीक कहा है, 'न जाना जानकी नाथे कल क्या होने वाला है, कामराज को कौन जानता था? लेकिन कांग्रेसाध्यक्ष बनते हो वे भारतीय राजनीति के बेताज बादशाह बन गये ! और वह दिन भो आया कि जब उनको कोई जानता ही नहीं! यह सब शुभ कर्मों के उदय और अशुभ कर्मों के उदय का खेल है । कर्म की गति सदा निराली, अनोखी और अनठी रही है । इस का रहस्य सिर्फ केवल ज्ञानी जान सके हैं । 'कर्मन की लख लीला में लाखों हैं कंगाल । चढती-पड़ती हँसतो-रोती-टेढी इसकी चाल ।। विषमा कर्मण: सृष्टिष्टा करमपृष्टवत् ।। जात्याविभूतिवेषभ्यात् का रतिस्तत्र योगिनः ? ॥४॥१६४।। अर्थ :- ऊंट की पीठ की तरह कर्म की रचना वक्र है जो जाति प्रादि की उत्पति की विषमता से समान होने बाली नहीं है । उस में योगी को प्रेम कैसे हो सकता है ? .. जात्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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