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________________ ३०२ विवेचन : ऊँट के अट्ठारह वक्र । कर्म के अनंत वक्र । सर्वत्र विषमता ! जहाँ देखो वहाँ विषमता ! कहीं भी समानता के दर्शन नहीं ! समानता जैसे मृगजल बन गई है ! मतलब कर्मों मे सर्जित दुनिया विषमता से लबालब भरी हुई है । जहाँ नमूने के लिए भी समानता नहीं ! जाति की विषमता.... कुल की विषमता.... शरीर, विज्ञान, आयुष्य, बल, उपभोगादि सभी में विषमता । ऐसी कर्मसर्जित घिनौनी दुनिया से त्यागी-योगी को भला प्रीति कैसी ? * विश्व में विषमता के दर्शन करो । * विषमता के दर्शन से विश्व के प्रति रही प्रीति और आस्था छिन्न-भिन्न होते देर न लगेगी । * फलतः, प्रासक्ति का प्रमाण कम होगा ! * उससे हिंसा, झूठ, चोरी, वामाचार, बलात्कार और परिग्रह के असंख्य पाप नष्ट हो जाएंगे । * तब मोक्षमार्ग की ओर दृष्टि जायेगी । * कर्मबंधन तोडने का पुरूषार्थ होगा । * किसी भी जीव के दुःख के तुम निमित्त नहीं बनोगें । * और तुम योगी बन जानोगे । परमादरणीय उमास्वातिजी ने अपने ग्रंथ 'प्रशमरति' में कहा है : जातिकुल देहविज्ञानायुर्बल- भोग- मूतिवैषम्यम् । दृष्ट्वा कथमिह विदेषां भवसंसारे रतिर्भवति ? ज्ञानसार "जाति, कुल, शरीर, विज्ञान, प्रायुष्य, बल एवं भोग की विषमताओं को देखते हुए, जन्म-मृत्यु रूपी संसार के प्रति भला, विद्वद्जनों का स्नेह-भाव कैसे संभव है ?" यदि आप को अपनी जात-पांत की उच्चता में खुशी होती है, कुल की महत्ता गाने में प्रानन्द मिलता है, स्व-शरीर को देख-देख कर हर्ष के फव्वारे फूटते हैं, अपने कला-विज्ञान का महसास कर मन प्रफुल्लित होता है, खुद की आयु पर दृढ विश्वास है, अपने द्रव्य-बल, शरीर-बल, और स्वजन बल पर गौरव है, भोग-सुख की ललक है, तो मान लेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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