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हे जीव, तू अंतरात्मा बन । विभावावस्था से सर्वथा [ निवृत्त हो जा । स्वभावावस्था की ओर गमन कर 1 आत्मा से परे .... आत्मा से भिन्न ऐद्रों की ओर दृष्टिपात भी न कर । अर्थात् जड़ द्रव्य एवं उस के विविध पर्यायों के आधार से राग-द्वेष करना बंद कर । जब तक तुम बहिरात्मदशा में भटकते रहोगे, निःसंदेह तब तक ध्येय रुपी परमात्मा के साथ एकाकार नहीं हो सकोगे । इसी लिए कहता हूँ कि अन्तरात्मा बन | अंतरात्मा ही एकाग्र बन सकती है । की एकाग्रता बहिरात्मा के भाग्य में नहीं है । हे प्रात्मन् । यदि तुम सम्यग्दृष्टि हो तो ध्यान में लीन - तल्लीन बन सकते हो । लेकिन अगर अंतरात्मा नहीं हो और केवल सम्यग्दृष्टि होने का ही दावा करते हो तो तुम एकाग्र नहीं बन सकते | ध्येय का ध्यान नहीं कर सकते सम्यग्दृष्टि के साथ-साथ अंतरात्मदशा होना निहायत आवश्यक है ।
परमात्मस्वरुप
ध्यान
रिहंत के विशुद्ध और परम प्रभावी प्रात्म- द्रव्य का ध्यान कर । उनके अनंत - ज्ञानादि गुणों का चिंतन कर । अष्ट प्रातिहार्य आदि पर्याय का निरंतर ध्यान धर । अरिहंत पुष्प के चारों और मधुर गुंजारव करता भ्रमर बन जा । सिवाय अरिहंत के, दुनिया की कोई चीज अच्छी न लगे । ना ही अरिहंत के सिवाय कोई ध्येय हो । भावार्थ यह कि तुम्हारी मानसिक - सृष्टि में अरिहंत के अतिरिक्त कुछ भी न हो । यहो है ध्याता, ध्यान, और समाधि की समापत्ति ।
अर्थ
मणाविव प्रतिच्छाया समापत्तिः परमात्मनः ।
क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले ||३|| २३५ ।
वणि की भाँति क्षीणवृत्तिवाले शुद्ध अंतरात्मा में ध्यान से परमात्मा का प्रतिबिंब दमक उठे, उसे 'समापत्ति' कहा है ।
विवेचन : मणि कभी देखा है ? उत्तम स्फटिक में कभी प्रतिबिंब उभरते देखा है ? यदि यह न देखा हो तो भी निःसंदेह, तुमने दर्पण में अपना प्रतिबिंब उभरते तो अवश्य देखा होगा ?
मणि हो, स्फटिक हो अथवा दर्पण हो - वह गन्दे या अस्वच्छ नहीं चाहिए, बल्कि निर्मल स्वच्छ होने चाहिये । तभी उसमें किसी का प्रतिबिंब
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