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परिग्रह-त्याग
न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति ।
परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः ॥१॥१६३॥ अर्थ :- न जाने परिग्रहरूपी यह ग्रह कोसा है, जो राशि से दुबारा लौट
नीं आता, कभी वक्रता का परित्याग नहीं करता और जिसने
त्रिलोक को विडंबित किया है ? विवेचन : सौ...दो सौ, हजार....दो हजार, लाख.... दो लाख, कोटि.... दो कोटि, अरब....दस अरब ?
अंक के बाद अंक बढ़ते ही जाते हैं। पलटकर देखने का काम नहीं । वाकई 'परिग्रह' नामक ग्रह ने प्राणी मात्र के जन्म-नक्षत्र को चारों प्रोर से घेर लिया है । उस के उत्पात, तृष्णा और व्याकुलता को कभी देखा है ? यदि तुम इस पापी ग्रह के असर तले होंगे तो निःसंदेह उन उत्पातों को, तृष्णा को और व्याकुलता को समझ नहीं पाओगे । नदी के तीव्र प्रवाह में बता मानव अन्य को डूबते नहीं देख सकता, बल्कि तट पर खड़े लोग ही उसकी वेदना, विह्वलता और असहाय स्थिति समझ सकते है । 'परिग्रह' ग्रह से मुक्त महापुरूष ही उसे देख सकते हैं कि इस ग्रह की सर्वभक्षी जाल में फंसे जीव किस कदर तडपते हैं, छटपटाते हैं |
धन-संपत्ति एवं वैभव के उत्तुंग शिखरों पर आरोहण करने के लिए प्रयत्नशील मानव को संबोधित कर पूज्य उपाध्यायजी महाराज कहते हैं : 'हे जीव ! तुम इस निरर्थक प्रयत्न का परित्याग कर दो। आज तक कोई मानव अथवा देव-देवेन्द्र भौतिक संपत्ति के शिखर पर लाख प्रयत्नों के बावजद भी पहँच नहीं पाया है। कोई उसके शिखर पर पहँच ही नहीं पाता....वह पनन्त है । दूर के ढोल हमेशा सुहावने होते हैं । अतः तुम उसकी बुलंदी पर पहुँचने के अरमान दिल से निकाल दो। व्यर्थ की विडंबना क्यों मोल लेते हो ? __अरे, तुम उसकी वक्रता तो देखो । वह हमेशा जीव की इच्छा के विपरीत ही चलता है । जिसके हृदय में वैभव का जरा भी मोह नहीं, उसके इर्द-गिर्द थी और संपत्ति की अभिनव दुनिया खडी हो जाती है । जब कि जो यश और संपदा के लिए निरंतर छटपटाता है अधीर
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