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ध्यान
उपद्रव और उपसर्ग भयभीत न कर सके, उसे धीरता कहते हैं ! ध्येय के साथ एकाकार होने के लिए धीर बनना ही चाहिए।
३. प्रशान्तः समता का शीतल कुण्ड ! ध्याता की प्रात्मा अर्थात् उपशम के कलकल नाद करते झरनों का प्रदेश ! वहाँ सदैव शीतलता होती है । काम, क्रोध और लोभ-मोह का वहाँ नामोनिशान नहीं । भले ही कषायों की घधकतो अग्नि के शोलों की बारिश हो, उपशम के कुण्ड में गिरते ही शांत! वह दृढप्रहारी महात्मा....ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता साधते खड़े थे न ? क्या नागरिकों ने उन पर अंगार की वृष्टि नहीं की थो? लेकिन परम तपस्वी महात्मा को वे अंगारे जला न सके ! भला, ऐसा क्यों हआ ? कारण साफ है. वधकते अंगारे उपशम-रस के कुण्ड में बुझ जो जाते थे! जब हम ध्यानी ज्ञानी पुरुषों का पूर्व-इतिहास निहारते हैं, तब उपशम-रस की अद्वितीय महिमा के दर्शन होते हैं। लेकिन ध्यान के समय प्रशांत रहें और तत्पश्चात् कषायों को खेलने की स्वतंत्रता दे दो, यह अनुचित है। ऐसा मत करना । इस के बजाय जीवन की प्रत्येक पल उपशमरस की गागर बन जानी चाहिए। दिन हो या रात, जंगल हो या नगर. रोगो हो या निरोगी किसी भी काल, क्षेत्र और परिस्थिति में ध्यानी पुरुष शांत रस का सागर ही होता है ।
४ स्थिर: ध्येय के उपासक में चंचलता न हो! जिस ध्येय के साथ ध्यान द्वारा एकत्व प्राप्त करना है, अाखिर वह ध्येय है क्या ? अनन्तकालीन स्थिरता और निश्चलता ! यहाँ मन-वचन-काया के कोई योग न हो....! फिर भला, ध्याता चंचल, अस्थिर कैसे हो सकता है ? अस्थिरता और चंचलता ध्यानमार्ग के अवरोधक तत्त्व हैं ! ध्यान में ऐसी सहज स्थिरता होनी चाहिए की कभी उसमें विक्षेप न पडे !
५. सुखासनी: ध्यानी महापुरुष प्रायः सुखासन पर बैठे ! मतलब ध्यानावस्था में उसका आसन (बैठने को पद्धति) ऐसा होना चाहिए कि बार-बार ऊँचा-नोचा होने का प्रसंग न आये। एक हो अासन पर वह दीर्घावधि तक बैठ सके ।
६. नासानन्यस्तदृष्टि: ध्यानी की दृष्टि इधर-उधर स्वच्छंद बन न भटके ! बल्कि नासिका के अग्रभाग पर उस को दृष्टि स्थिर रहनी
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