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ज्ञानसार
चर्चा यहाँ की गयी है । सूत्र किसे सिखाये जाए ? सूत्रों का अर्थ किसे समझाया जाए ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। पूज्य उपाध्यायजी महाराज अपने पूर्ववती प्रामाणिक-निष्ठावन्त आचार्यों की साक्षी के साथ उक्त प्रश्नों का निराकरण/समाधान करते हैं ।
जिस व्यक्ति को स्थान, इच्छा, प्रीति आदि विषयक कोई योग प्रिय नहीं और जो किसी योग की पाराधना नहीं करता, उसे सूत्रदान म किया जाए । प्रश्न :- आधुनिक काल में ऐसे योगप्रिय अथवा योगाराधक मनुष्य मिलले अत्यन्त कठिन हैं, यहां तक कि संघ/समाज में भी नहीं के बराबर ही हैं । सौ में से पांच मिल जाए तो बस । तब चत्यवन्दनादि सूत्र क्या उन इने-गिने लोगों को ही सिखाये जाएँ ? अन्यों को नहीं सिखाये जाएँ, तो क्या धर्मशासन का विच्छेद संभव नहीं है ? किसी भी तरह, भले ही प्रविधि से क्यों न हो कोई धर्माराधना करता हो, परन्तु धर्मक्रिया नहीं करने वालों में तो बेहतर ही है न ? समाधान :- सर्व प्रथम धर्म-शासन- तोर्थ को समझ लो ! तीर्थ किसे कहा जाए ? उसकी परिभाषा क्या है ? उसकी तह में पह चो, तभी तीर्थ की वास्तविक व्याख्या आत्मसात् कर सकोगे । जिनाज्ञारहित मनुष्यों का समुदाय तीर्थ नहीं कहलाता । जिनाज्ञा का पक्षपात और प्रीति तो हर एक मनुष्य में होनी ही चाहिये । शास्त्राज्ञा-जिनाज्ञा के प्रति आदर, प्रीति-भक्ति और निष्ठा रखने वाले साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकाओं का समूह हो धर्मशासन है, तीर्थ है । ऐसों को सूत्रदान करने में कोई दोष नहीं । लेकिन भूलकर भी प्रविधि को प्रोत्साहन न दिया जाए । प्रविधि-पूर्वक घमंक्रियायें करने वालों की पीठ न थपथपायी जाए । उनकी अनुमोदना न की जाए । क्योंकि प्रविधि को उत्तेजन देने से शास्त्रोक्त क्रिया का हास होता है, और तीर्थ का विच्छेदन ।
'धर्मक्रिया न करने वालों से तो अविधिपूर्वक धर्मक्रिया करने वाले बेहतर ।' यों कहकर प्रविधि का समर्थन करना सरासर गलत
और अनुचित है । एक बार प्रविधि की परंपरा चल पड़ी, तो प्रविधि 'विधि' में परिणत होते विलंब नहीं लगता । तब यदि कोई शास्त्रोक्त
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