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________________ योग ४२३ विधि का प्रतिपादन करेगा, तो भी वह 'अविधि' ही प्रतीत होगी । तुम्हारी तसल्ली के लिये पूज्य उपाध्यायजी के ही शब्दों में पढ़ो : "शास्त्रविहित क्रिया का लोप करना यह कडवे फल देनेवाला है । स्वयं मत्यु को प्राप्त हुए और खुद के हाथों मारने में कोई विशेषता नहीं, ऐसो बात नहीं; लेकिन इतनी विशेषता है कि स्वयं मृत्यु पाता हैं, तब उसमें उसका दुष्टाशय निमित्त रूप नहीं, जबकि अपने (उसके) हाथों मारना-इस में दुष्टाशय निमित्त रूप है । ठीक उसी तरह क्रिया में प्रवत्ति नहीं करने वाले जीव की अपेक्षा से गुरु को कोई दोष नहीं । परन्तु प्रविधि के प्ररूपण का अवलंबन कर श्रोता अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करे, तो उन्मार्ग में प्रवत्ति कराने के परिणामवश अवश्य महादोष है । इस बात पर (तीर्थ-उच्छेदन) धर्मभीरु जीव को अवश्य विचार करना चाहिए । [-'योगाष्टक' श्लोक ८ का टम्बा] तात्पर्य यह है कि स्थानादि ५ योग, इच्छादि ४ योग और प्रीति आदि ४ योग का मार्ग दिखाकर पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने मोक्षमार्ग के इच्छुक जीवों को सुन्दर सरस मार्गदर्शन दिया है। भोग की भूलभूलैया से बाहर निकल, योग के मार्ग पर प्रयारण करने के लिए प्रस्तुत योगाष्टक का गंभीर चिन्तन करना चाहिए । साथ ही साथ 'योगविशिका' ग्रंथ का भी गहरा अध्ययन करना चाहिए, जिससे विशेष अवबोध प्राप्त होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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