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योग निरोध ।
[ २५ तीसरे समय में रवैया [मन्थान] रुप बनायें ।
चौथे समय में आंतराओं को पूरित करके सम्पूर्ण १४ राजलोक व्यापी बन जाय ।
* पाँचवें समय में आँतराओं का संहरण कर ले । छ समय में मन्थान का संहरण कर ले । सातवें समय में कपाट का संहरण कर ले ।
आठवें समय में दंड को भी समेट कर आत्मा शरीरस्थ बन जाय। ३. योगनिरोध
समुद्घात से निवृत्त केवली भगवान् 'योगनिरोध' के मार्ग पर चलते हैं। योग [मन-वचन-काया] के निमित्त होने वाले बंध का नाश करने हेतु योगनिरोध करने में आता है। यह क्रिया अन्तर्मुहूर्त काल में करने में आती है।
सबसे पहले बादर काययोग के बल से बादर वचनयोग को रोघे, फिर बादर काययोग के आलम्बन से बादर मनोयोग को रोघे । उसके बाद उच्छ्वास-निश्वास को रोघ, तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोघे । [कारण कि जहाँ तक बादर योग हो वहाँ तक सूक्ष्म योग रोधे नहीं जा सकते ।]
उसके बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग को रोधे और पीछे के समय में सूक्ष्म मनोयोग को रोघे । उसके बाद के समय में काययोग को रोधे ।
सूक्ष्म काययोग के अवरोघ की क्रिया करती हुई आत्मा 'सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती' नाम के शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद पर आरुढ हो जाय और १३ वें गुणस्थानक के चरम समयपर्यंत जाय । ___ सयोगी केवली गुणस्थानक के चरम समय में [१] सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती ध्यान [२] सर्व किट्टियाँ, [३] शाता का बंध | ४] नाम गोत्र की उदीरणा [५] शुक्ल लेश्या, [६] स्थिति-रस का घात और [७] योग । इन सातों पदार्थों का एक साथ विनाश हो जाता है, और आत्मा अयोगी केवली बन जाती है । * संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः पष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ ----प्रशमरति प्रकरणे
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