SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'ज्ञानसार' ग्रंथ के रचयिता न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी भारतीय संस्कृति सदैव धर्मप्रधान रही हुई है। चकि धर्म से ही जीवमात्र का कल्याण हो सकता है और धर्म से ही जीवन में सच्ची शान्ति एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है । जीवों की भिन्न-भिन्न योग्यतायें देखते हुए ज्ञानीपुरुषों ने धर्म का पालन करने के अनेक प्रकार बताये हैं । __ जीवों की पात्रता के अनुसार धर्ममार्ग बताने का एवं उस धर्ममार्ग पर चलने की प्रेरणा देने का पवित्र कार्य, करूणावंत साधुपुरुष प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं और आज....वर्तमानकाल में भी कर रहे हैं । निष्पाप जीवन जीना, आत्मसाधना में जाग्रत रहना और करूणा से प्रेरित हो, विश्व का कल्याण करने हेतू धर्मोपदेश देना, सुन्दर धर्मग्रन्थों का निर्माण करना-यही है साधुजीवन की प्रमुख प्रवृत्ति, और यही है उनकी विश्वसेवा । विश्ववत्सल भगवान् महावीर स्वामी के धर्मशासन में ऐसे धर्मप्रभावक अनेक महान् आचार्य एवं साधुपुरुष हो गये हैं और अभी इस समय तक होते रहे हैं । परन्तु उन सभी महापुरूषों में अपनी असाधारण प्रतिभा से, विशिष्ट शासनप्रभावना की दृष्टि से और विपुल साहित्यसर्जन की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान बनानेवाले श्री भद्रबाहुस्वामी, श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री हरिभद्रसूरि, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, श्री हेमचन्द्रसूरि जैसे समर्थ आचार्यों की पंक्ति में जिनका शुभ नाम आदरभाव से लिया जाता है वे हैं न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी ! जो इस ग्रन्थरत्न-'ज्ञानसार' के रचयिता हैं । विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में यह महापुरूष हो गये । इनके जीवन के विषय में अनेक दंतकथायें एवं किंवदन्तियां प्रचलित हैं। परन्तु सत्रहवीं शताब्दी में जिसकी रचना हुई है उस 'सुजसवेली भास' नाम की छोटी सी कृति में उपाध्यायजी का यथार्थ जीवनवृत्तान्त संक्षेप में प्राप्त होता है । उपाध्यायजी के जीवन के विषय में यही कृति प्रमाणभूत मान सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy