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संक्षिप्त जोवनपरिचय :
उत्तर गुजरात में पाटन शहर के पास 'कनोड़ा' गाँव आज भी मौजूद है। उस गांव में नारायण नाम के श्रेष्ठ रहते थे । उनकी पत्नी का नाम था सौभाग्यदेवी । पति-पत्नी सदाचारी एवं धर्मनिष्ठ थे। उनके दो पुत्र थे : जशवंत और पद्मसिंह ।
जशवंत बचपन से बुद्धिमान् था । बचपन में भी उसकी समझदारी बहुत अच्छी थी । और उसमें अनेक गुण दृष्टिगोचर होते थे ।
उस समय के प्रखर विद्वान् मुनिराज श्री नयविजयजी विहार करते करते वि. सं. १६८८ में कनोड़ा पधारे । कनोड़ा की जनता श्री नयविजयजी की ज्ञान-वैराग्य भरपूर देशना सुनकर मुग्ध हो गई । श्रेष्ठि नारायण भी परिवारसहित गुरूदेव का उपदेश सुनने गये । उपदेश तो सभी ने सुना, परन्तु बालक जशवंत के मन पर उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ा । जशवंत की आत्मा में पड़े हुए त्याग-वैराग्य के संस्कार जाग्रत हो गये । संसार का त्याग कर चारित्रधर्म अंगीकार करने की भावना माता-पिता के सामने व्यक्त की। गुरुदेवश्री नयविजयजी ने भी जशवंत की बुद्धिप्रतिभा एवं संस्कारिता देख, नारायण श्रेष्ठि एवं सौभाग्यदेवी को कहा : 'भाग्यशाली, तुम्हारा महान् भाग्य है कि ऐसे पुत्ररत्न की तुम्हें प्राप्ति हुई है । भले ही उम्र में जशवंत छोटा हो, उसकी आत्मा छोटी नहीं है। उसकी आत्मा महान् है । यदि तुम पुत्र-मोह को मिटा सको और जशवंत को चारित्रधर्म स्वीकार करने की अनुमति दे दो, तो यह लड़का भविष्य में भारत की भव्य विभूति बन सकता है । लाखों लोगों का उद्धारक बन सकता है । ऐसा मेरा अन्तःकरण कहता है ।'
गुरुदेव की बात सुनकर नारायण और सौभाग्यदेवी की आंखें चूने लगी। वे आंसू हर्ष के थे और शोक के भी । 'हमारा पुत्र महान् साधु बन, अनेक जीवों का कल्याण करेगा....श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के धर्मशासन को उज्ज्वल करेगा' यह कल्पना उनको हर्षविभोर बनाती है तो 'ऐसा विनीत, बुद्धिमान और प्रसन्नमुख पुत्र गृहत्याग कर, माता-पिता एवं स्नेही-स्वजनादि को छोड़कर चला जायेगा क्या ?' यह विचार उनको उदास भी बना देता है । उनका मन द्विधा में पड़ गया ।
गुरुदेव श्री नयविजयजी वहां से विहार कर पाटण पधारे । चातुर्मास पाटण में किया ।
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