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ज्ञानसार
१९. उपशम श्रेणी 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थानक में रही हई आत्मा उपशम श्रेणी का प्रारंभ करती है । इस श्रेणी में 'मोहनीय कर्म' की उत्तर प्रकृतियों का क्रमश: उपशम होता है, इसलिए इसको 'उपशम श्रेणी' कहा जाता है।
दूसरा मत यह है कि अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन अप्रमत्तसंयत ही नहीं परंतु अविरत, देश-विरत, प्रमत्त-संयत, अप्रमत्त-संयत भी कर सकते हैं।
परंतु दर्शन त्रिक (सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय) का उपशमन तो संयत ही कर सकता है, यह सर्वसम्मत नियम है । अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन :
- ४-५-६-७ गुणस्थानकों में से किसी एक गुणस्थानक में रहता है। - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ल लेश्या में से किसी एक लेश्यावाला। - मन, वचन, काया के योगों में से किसी योग में वर्तमान । - साकार उपयोग वाला । - अन्त: कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिवाला ।
- श्रेणी के करण-काल पूर्व भी अन्तर्मुहूर्त काल तक विशुद्ध चित्तवाला ।
- परावर्तमान प्रकृतियां (शुभ) बांधनेवाला ।
प्रति समय शुभ प्रकृति में अनुभाग की वृद्धि और अशुभ प्रकृति में अनुभाग की हानि करता है। पहले कर्मों की जितनी स्थिति बांधता था अब उन कर्मों की पहले के स्थितिबंध की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून स्थिति बांधता है। __ इस तरह अन्तमुहर्त पूर्ण होने के बाद यथाप्रवृत्ति-करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है । हर एक करण का समय अन्तमुहूर्त होता है । फिर आत्मा उपशमकाल में प्रवेश करती है ।
यथाप्रवृत्तिकरण में व्यवहार करती आत्मा (प्रति समय उत्तरोत्तर अनंतगुण विशुद्ध होने से ) शुभ प्रकृतियों के रस में अनंत गुनी वृद्धि
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