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सानसार
नहीं होता । हर प्रात्मा के शुद्ध पर्याय समान दिखायी देते हैं । अन्य आत्मा के बजाय अपनी आत्मा में कोई विशेषता अथवा अधिकता दृष्टिगोचर नहीं होती । तब अभिमान क्यों और किसलिये किया जाए? दूसरों के मुकाबले हमारे में कोई विशेषता अथवा किन्हीं गुणों की प्रचुरता हो, तभी अभिमान जगे न ? . आत्मा के शुद्ध पर्यायों का विचार शुद्ध नय की दृष्टि से ही किया जाता है । ऐसी स्थिति में सभी आत्मायें ज्ञानादि अनन्त गुणों से युक्त, अरूपी....दोष-विरहित और समान प्रतीत होती हैं। दूसरी प्रात्मा की तुलना में हमारी आत्मा में एकाध गुण भी अधिक नहीं होता....। किसी आत्मा में दोष के दर्शन नहीं होते । फिर भला, उत्कर्ष किस बात पर करना चाहिये ?
संभव है, शुद्ध स्वरूप के चिन्तन में तो अभिमान के अश्व पर सवार होना सर्वथा दुष्कर है, लेकिन शुद्ध पर्यायों के साथ-साथ अशुद्ध पर्याय भी विद्यमान होते हैं । अशुद्ध पर्यायों में समानता नहीं होती है । तब अभिमान का टट्ट रेस के घोड़े का रुप धारण करने में विलंब नहीं करता और पागल जीव उस पर सवार हो जाता है !
लेकिन महामुनि अशुद्ध पर्यायों से कोसों दूर रहते हैं । अपने आत्मप्रदेश से अशुद्ध पर्यायों को देश-निकाला दे देते हैं । तब वे अभिमान कैसे करेंगे ? भले ही दूसरों के मुकाबले अलौकिक रुप-सौन्दर्य हो, विशिष्ट प्रकार का लावण्य हो, शास्त्र-ज्ञान और परिशीलन में महापंडित हो, अधिक प्रज्ञा हो, अन्य आत्माओं से बढ़-चढ़कर शिष्य-संपदा हो, अथवा मान-सम्मान का जयघोष सारी आलम में गूंजता हो, उनके (महामुनि के) लिये यह सब तुच्छ और क्षणिक होता है। सर्वोत्तम महामुनि भूलकर भी कभी क्षणिक वस्तु पर अभिमान नहीं करते ।
यदि पड़ोसी के बजाय तुम्हारे घर में अधिक गंदगी हो, तुम्हारा घर ज्यादा गंदा और मटमैला हो, तो क्या अभिमान करोगे ? 'तुम्हारे मकान से मेरे मकान में ज्यादा कचरा है !' कहते हुए क्या तुम्हारा सीना फलकर कुप्पा हो जाता है ? नहीं, हर्गिज नहीं । क्योंकि कचरे को तुम तुच्छ समझते हो । कचरे की अधिकता पर अभिमान नहीं होता ! तब भला, जो महामुनि समस्त वैभाविक पर्यायों को तुच्छ
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