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विशुद्धि के मार्ग पर वे विशेष रुप से अग्रसर हुए । वि. सं. १७१८ में वे महापुरुष उपाध्याय पद से अलंकृत हुए ।
अनेक वर्षों की अखंड ज्ञानसाधना एवं जीवन के विविध अनुभवों के परिपाक स्वरुप अनेक ग्रंथरत्नों का सर्जन वे करते रहे । उन ग्रंथरत्नों का प्रकाश अनेक जिज्ञासुओं के हृदय को प्रकाशित करने लगा । अनेक मुमुक्षुओं को स्पष्ट मार्गदर्शन देता रहा । अखंड ज्ञानोपासना और विपुल साहित्य सर्जन के कारण उपाध्याय श्री यशोविजयजी, विद्वानों में 'लघुहरिभद्र' के नाम से प्रसिद्ध हुए । जीवनपर्यंत लोककल्याण का और साहित्यसर्जन का कार्य चलता ही रहा । करीबन् २५ वर्ष तक उपाध्यायपद को शोभायमान करते हुए जिनशासन की अपूर्व सेवा करते रहे ।
वि. सं. १७४३ का चातुर्मास उन्होंने डभोई [ गुजरात ] में किया और वहां अनशन कर वे समाधिमृत्यु को प्राप्त हुए । स्वर्गवास - भूमि पर स्तूप [ समाधिमंदिर ] बनाया गया । आज भी वह स्तूप विद्यमान है । ऐसा कहा जाता है कि स्वर्गवास के दिन वहां स्तूप में से न्याय का ध्वनि निकलता है और लोगों को सुनाई देता है कभी कभी ।
श्रीमद् यशोविजयजी के साहित्य का परिचय
उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने चार भाषाओं में साहित्यरचना की है : १. संस्कृत, २. प्राकृत, ३. गुजराती. ४. राजस्थानी ।
विषय की दृष्टि से देखा जाय तो उन्होंने काव्य, कथा, चरित्र, आचार, तत्त्वज्ञान, न्याय - तर्क, दर्शनशास्त्र, योग, अध्यात्म, वैराग्य आदि अनेक विषयों पर विस्तार से एवं गहराई से लिखा है । उन्होंने जिस प्रकार विद्वानों को चमत्कृत करनेवाले गहन और गंभीर ग्रंथ लिखे हैं वैसे सामान्य मनुष्य भी सरलता से समझ सके वैसा लोकभोग्य साहित्य भी लिखा है । उन्होंने जैसे गद्य लिखा है वैसे पद्यात्मक रचनायें भी लिखी हैं । उन्होंने जिस प्रकार मौलिक ग्रन्थों की रचना की है वैसे प्राचीन आचार्यों के महत्वपूर्ण संस्कृत - प्राकृत भाषा के ग्रंथों पर विवेचन एवं टीकायें भी लिखी हैं ।
वे महापुरुष जैसे जैनधर्म-दर्शन के पारंगत विद्वान् थे वैसे अन्य धर्म एवं दर्शनों के भी तलस्पर्शी ज्ञाता थे । उनके साहित्य में उनकी व्यापक विद्वत्ता एवं समन्वयात्मक उदार दृष्टि का सुभग दर्शन होता है । वे प्रखर तार्किक होने से, स्वसंप्रदाय में या पर संप्रदाय में जहां जहां भी तर्कहीनता और सिद्धान्तों
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