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________________ बुद्धिप्रतिभा के धनी श्री यशोविजयजी ने शीघ्र गति से न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत और बौद्धदर्शन आदि का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया । 'न्यायचिंतामणी' जैसे न्यायदर्शन के महान् ग्रंथ का भी अवगाहन किया । जैन दर्शन के सिद्धांतों का परिशीलन तो चल ही रहा था। स्याद्वाद-दृष्टि से सभी दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भी वे करते रहे । काशी के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी ख्याति फैलने लगी। वह जमाना था वाद-विवाद का । एक बार एक विद्वान् संन्यासी ने बड़े आडंबर के साथ काशी में आकर विद्वानों के सामने शास्त्रवाद करने का एलान कर दिया । उस संन्यासी के साथ शास्त्रवाद करने के लिये जब कोई भी पंडित या विद्वान् तैयार नहीं हुए तब श्री यशोविजयजी तैयार हुए । वाद-विवाद में उन्होंने उस संन्यासी को पराजित कर दिया । विद्वत्सभा विस्मित हो गई। काशी के विद्वानों ने और जनता ने मिलकर विजययात्रा निकाली । बाद में यशोविजयजी को सन्मान के साथ 'न्यायविशारद' की गौरवपूर्ण उपाधि प्रदान की। काशी के विद्वानों ने जैन मुनि का सन्मान किया हो, ऐसा यह पहला ही प्रसंग था । काशी में तीन वर्ष रहकर, यशोविजयजी आग्रा पधारे । वहां एक समर्थ विद्वान् के पास चार वर्ष रहकर विविध शास्त्रों का एवं दर्शनों का विशेष गहराई से अध्ययन किया । बाद में विहार कर वे गुजरात पधारे । उन की उज्ज्वल यशोगाथा सर्वत्र फैलने लगी । अनेक विद्वान, पंडित, जिज्ञासु, वादी, भोजक....याचक....उनके पास आने लगे । यशोविजयजी के दर्शन कर, उनका सत्संग कर वे अपने आप को धन्य मानने लगे। अहमदाबाद में नागोरी धर्मशाला में जब वे पधारे तो धर्मशाला जीवंत तीर्थधाम बन गयी ! गुजरात का मुगल सूबा महोब्बतखान भी, यशोविजयजी की प्रशंसा सुन कर उनके दर्शन करने गया । खान की प्रार्थना से यशोविजयजी ने १८ अद्भुत अवधान-प्रयोग कर दिखाये । खान बहुत ही प्रसन्न और प्रभावित हुआ । जिनशासन का प्रभाव विस्तृत हुआ । । उस समय जिनशासन के अधिनायक थे आचार्यदेव श्री विजयदेवसूरिजी । श्री जैन संघ ने आचार्य श्री को विनंती की : 'गुरुदेव, ज्ञान के सागर और महान् धर्मप्रभावक श्री यशोविजयजी को उपाध्याय पद पर स्थापित करें, ऐसी संघ की भावना है ।' ____ आचार्यश्री ने अपनी अनुमति प्रदान की। श्री यशोविजयजी ने ज्ञान-ध्यान के साथ साथ २० स्थानक तप की भी आराधना की । संयमशुद्धि और आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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