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का विसंवाद दिखायी दिया वहां उन्होंने निर्भयता से स्पष्ट शब्दों में आलोचना की है । ऐसे आलोचनात्मक ग्रंथ निम्न प्रकार हैं -
अध्यात्ममतपरीक्षा, देवधर्मपरीक्षा, दिक्पट ८४ बोल, प्रतिमाशतक, महावीर जिन स्तवन वगैरह ।
उनके लिखे हुए जैनतर्कभाषा, स्याद्वादकल्पलता, ज्ञानबिंदु, नयप्रदीप, नयरहस्य, नयामृततरंगिणी, नयोपदेश, न्यायालोक, खंडनखाद्यखंड, अष्टसहस्त्री वगैरह अनेक दार्शनिक ग्रंथ उनकी विलक्षण प्रतिभा का सुन्दर परिचय देते हैं । नव्यन्याय की तर्कप्रचुर शैली में जैन तत्त्वज्ञान को प्रतिपादित करने का भगीरथ कार्य सर्वप्रथम उन्होंने ही सफलतापूर्वक संपन्न किया है ।
गुजराती भाषा में उन्होंने लिखे हए सवासौ गाथा का स्तवन, देढसौ गाथा का स्तवन, साढे तीन सौ गाथा का स्तवन, योगदृष्टि की आठ सज्झायें, द्रव्य-गुण-पर्याय का रास....जैसी गंभीर रचनायें भी पुनः पुनः मनन करने जैसी हैं ।
और, उनकी समग्र साहित्य साधना के शिखर पर स्वर्ण कलश सदृश शोभते हैं योग और अध्यात्म के उनके अनुभवपूर्ण श्रेष्ट ग्रन्थ ज्ञानसार, अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, पातंजलयोगसूत्रवृत्ति, योगविशिकावृत्ति, और द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका वगैरह ।
उपाध्यायजी की निर्मल प्रज्ञा और आंतर वैभव का आह्लादक परिचय पाने के लिए उनके इन ग्रन्थरत्नों का अवगाहन अवश्य करना चाहिये । उन के प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध ग्रन्थों की सूची बहुत बड़ी है । विशेष जानकारी पाने की जिज्ञासा वालों को 'श्री यशोविजय स्मृतिग्रन्थ' और “यशोदोहन" वगैरह ग्रन्थ देखने चाहिये ।
ऐसे महान् ज्ञानी, उच्च कोटि के आत्मसाधक, संतपुरुष प्रतिभासंपन्न उपाध्याय श्री यशोविजयजी की, उनके समकालीन विद्वानों ने 'कलिकाल केवली' के रुप में प्रशंसा की है । अपन भी उन महान् श्रुतधर महर्षि को भावपूर्ण हृदय से वंदना कर, उन की बहायी हुई ज्ञानगंगा में स्नान कर निर्मल बनें और जीवन सफल बनायें।
- भद्रगुप्तविजय
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