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ज्ञानसार
संभव है जब तुम दूसरों के आत्मगुणों को निहारकर प्रसन्नता का अनुभव करोगे, आनन्दित होंगे। इसके लिये तुम्हें सामने वाले में रहे हए सिर्फ गुरणों को ही देखना है, परखना है, न कि उसकी त्रुटियों को अथवा दोषों को । मतलब, आत्म-संयम किये बिना यह संभव नहीं है । __जब भी तुम्हारी दृष्टि दूसरे जीव के प्रति आकर्षित हो, तुम्हें उसमें रहे अनंत गुणों को ही ग्रहण करना है। उसके गुणों को आत्मसात कर ज्यों-ज्यों तुम आनंदित बनोगे, अपूर्व आनंद का अनुभव करोगे, त्यों-त्यों उसके गुण तुम्हारी आत्मा में भी प्रकट होते जायेंगे । परिणाम यह होगा कि इन गुरणा की पूर्णता का जो स्वर्गीय आनंद तुम्हें मिलेगा, ऐसे आनंद की अनुभूति इसके पहले तुमने कभी नहीं की होगी । तुम्हारा मन इस प्रकार के आनंदामृत में आकंठ डूब जाएगा और तब तुम्हें अपने जीवन के आचार-विचार तथा व्यवहार में एक प्रकार के अद्भुत परिवर्तन का साक्षात्कार होगा।
___ मसलन, जगत में रहे अनन्त जीव जिन सांसारिक सुखों को पाने के लिये रात-दिन मेहनत करते हैं, लाखों की संपत्ति लुटाते हैं, असंख्य पाप करते हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में कोई चाह, कोई इच्छा नहीं रहेगी । तुम उन्हें पाने के लिये तनिक भी प्रयत्न नहीं करोगे, ना ही पाप भी करोगे । इस तरह तुममें इन सुखों के प्रति पूर्ण रूप से उदासीनता
आ जायेगी । फल यह होगा कि फिर पाप करने का सवाल ही पैदा नहीं होगा । तुम इन सुखों की प्राप्ति से कोसों दूर निकल गये होंगे। इनके प्रति विराग की भावना तुममें पैदा हो जाएगी। क्योंकि यही सांसारिक सुख तुम्हारे गुणानन्द में बाधारूप जो है ।
जब तक इस प्रकार का परिवर्तन जीवन में नहीं आये, तब तक तुम्हें चुप नहीं बैठना है, हाथ पर हाथ धरे निष्क्रिय नहीं रहना है । बल्कि अपनी गुणदृष्टि को अधिक से अधिक मात्रा में विकसित-विकस्वर बनाते रहना हैं ।
अपूर्ण: पूर्णतामेति, पूर्यमारणस्तु हीयते ।।
पूरानन्दस्वभावोऽयं, जगदभुतदायक: ।।६।। अर्थ : अपूर्ण पूर्णता प्राप्त करता है और पूर्ण अपूर्णता को पाता है । समस्त
सृष्टि के लिये आश्चर्यकारक आनन्द से परिपूर्ण यह प्रात्मा का स्वभाव है ।
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