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ज्ञानसार
तू साधु का स्वांग रचकर, साधु-वेष धारण कर, अभिमान करता है ? व्यर्थ हो गुणों का नाश क्यों करता है ? क्या तेरी समझ में कतई नहीं आता कि अभिमान के कारण गुणों का नाश होता है ? जानते नहीं कि अभिमानवश जमालि भव-भवर में फंस गया । वह मिथ्याभिमान के कारण अपनी सुध-बुध खो बैठा। संस्कार और शिक्षादीक्षा भुला बैठा । परमोपकारी परमात्मा महावीर देव के अनन्त उपकारों को विस्मृत कर दिया | विनय विवेक से भ्रष्ट बन गया । साथ ही अपनी अल्पज्ञता का ख्याल खो बैठा । न जाने उसने कितने गुरण खो दिये । गुणों का नाश कर बैठा । अरे, ग्रभिमान के प्रचंड वायु के झोंकों की लपेट में आकर असंख्य गुणरुपी महल ध्वस्त हो जाते हैं ।
अभिमान - वायु के उद्गम स्थान पर ही क्यों न 'सील' मार दी जाए ? कुल, रुप, बल, बुद्धि, यौवन वगैरह अन्य जीवों से तुम्हारे पास बढ़-चढ़कर होंगे | यदि इस पर तुमने उत्कर्ष किया तो कुत्सित हवा के झोंके उठते विलंब नहीं होगा । यदि तुम श्रमण हो तो शास्त्रज्ञान, शास्त्राभ्यास, शासन - प्रभावकता, वक्तृत्व-शक्ति लेखन - कला, शिष्यपरिवार, भक्त - समुदाय और गच्छाभिमान.... आदि छोटी-मोटी बातों का व्यामोह पैदा होते देर नहीं लगेगो । ऐसे समय यदि तुमने तात्त्विक चिन्तन द्वारा उन सब बातों को 'तुच्छ' न माना और शुद्ध नय की दृष्टि से 'समानता' का विचार न किया, तो मिथ्याभिमान की भूत-लीला से तुम आक्रान्त हो जायोगे । फलतः तुम्हारे में रहे गुण, पानी के बुदबुदे को तरह नष्ट होते पल की भी देर नहीं लगेगी । उसमें एक नये अनिष्ट का जन्म होगा । गुणरहित होने के उपरान्त भी 'मैं गुणी हूँ' ऐसा बताने हेतु ओर अपनो इज्जत बचाने के लिये दंभ करना पडेगा । तुम्हें दंभी बनना होगा ! तुम जैसे नहीं हो, वैसा प्रदर्शन करने के लिये प्रयत्न करोगे । तनिक सोचो, प्रात्मा का यह कैसा अधःपतन ? क्या यह भी नये सिरे से समझाना होगा ?
प्रायः ऐसा देखा गया है कि दुष्कर प्रयत्न और घोर तपश्चर्या के फलस्वरुप आत्मा में गुणों का प्रादुर्भाव होता है । यदि उन का यथोचित संरक्षण और संवर्धन न किया जाए, तो समझ लेना चाहिये कि गुणों का सही मूल्यांकन करना हम भूल गये हैं । जो मनुष्य गुणों का मूल्यांकन करना भूल जाए, उसके गुण नष्ट होते समय नहीं लगता । गुणों
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