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________________ बनात्मशंसा के मारक हमेशा इसी ताक में रहते हैं। उन को तो केवल अवसर मिलना चाहिए । वे अपनी पूरी शक्ति के साथ जीव पर पील पड़ेगे, टूट पडेंगे और गुणों का संहार करके ही दम लेंगे। अत: स्व-पर्याय अथवा पर-पर्याय का अभिमान नहीं करना है । सदा-सर्वदा, निरभिमानी बने रहना है । क्योंकि हम साधु-वेष की मर्यादा के बन्धन में जो हैं। हे महात्मन् ! भूलकर भी गुणों का नाश न करो और ना ही अभिमान....मिथ्याभिमान की संगत करो ! निरपेक्षानवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तयः ।। योगिनो गलितोत्कर्षापकर्षानल्पकल्पना : ॥८॥१४४॥ अर्थ :- योगी का स्वरूप अपेक्षारहित, देश की मर्यादा से मुक्त, काल की मर्यादा से रहित, ज्ञानमय होता है । उनको उत्कर्ष की कल्पनायें गलित हो गयी होती हैं । विवेचन : योगी ! जो आत्मस्वरूप में लीन और परमात्म-स्वरूप की झंखना करने वाला होता है उसे देश-काल के बन्धन नहीं होते हैं । वह स्व-उत्कर्ष से और पर-अपकर्ष से परे होता है । आत्मा के प्रतल महोदधि में अनंत ज्ञान में योगी सदा रमण करता है । पर-भाव, पर-पर्याय अथवा पौद्गलिक विविध रचनाओं में योगी की चेतना जाती नहीं, लुब्ध नहीं होती, आकर्षित नहीं होती। उसके मन में किसी प्रकार की कोई झंखना, कामना अथवा अभिलाषा के लिये स्थान नहीं होता । वह निरन्तर परमात्म-स्वरूप की अन्तिम मजिल पाने हेतु प्रवृत्तिशील रहे । उसे किसी की परवाह नहीं होती, ना ही कोई अपेक्षा । वह पूर्णतया निरपेक्ष भाव का प्रतीक होता है। उस में भव-सागर पार उतरने के लिये आवश्यक उत्कट निरपेक्षता होती है । 'निरविक्रवो तरइ दुत्तर भवोयं' । 'निरपेक्ष तिरे दुस्तर भवसागर को !' किसी राष्ट्र, नगर अथवा गांव-विशेष का उन्हें आग्रह नहीं । किसो मौसम का उन्हें बन्धन नहीं । शरदऋतु हो या वर्षाकाल, या फिर ग्रीष्म ऋतु, उनको निर्वाणयात्रा पर कोई प्रभाव नहीं ! अरे, किसो भाव-विशेष को भी उन्हें अपेक्षा नहीं । 'कोई मुझे योगी माने', Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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