________________
२६२
ज्ञानसार महात्मा माने या महाश्रमण माने ।' ऐसा आग्रह नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि उन्हें किसी बात की कोई अपेक्षा नहीं होती। किसी के आधार पर, परभाव पर जिन्दगी बसर करता ही नहीं ! तब फिर स्व-उत्कर्ष और परापकर्ष की कल्पनायें बेचारी हिमखंड की तरह पिघल ही जाये न ?
देश, काल और पर-द्रव्य के आधार पर जीवन व्यतीत करने वाला स्वोत्कर्ष को, स्वाभिमान को नष्ट नहीं कर सकता । परापकर्षपरनिन्दा की बुरी आदत को नियंत्रित नहीं कर सकता अभिमान को नेस्तनाबूद करने के लिये अनन्त इच्छाएँ और कामनाओं को निरपेक्षता की आग में डाल देना होगा। साथ ही, अपेक्षारहित, परद्रव्यों की अपेक्षा से मुक्त जीवन बिताने का दृढ संकल्प करना होगा । तभी स्वमहत्ता की शहनाई बजनी बन्द होगी और पर-निन्दा के बिगूल की आवाज शमते देर नहीं लगेगी !
-योगी बनना है ?
-योगी का जोवन बाहर से कठोर, लेकिन भोतर में शान्त, प्रशान्त और कोमल होता है । ऐसे जीवन की क्या चाह जग पड़ी है ? विद्यमान परद्रव्य-सापेक्ष जीवन के प्रति क्या घृणा उत्पन्न हुई है ? रात-दिन परनिन्दा में मग्न जीवन से क्या घबरा गये हो ? पर-परिगति के प्रांगण में सतत सम्पन्न प्रेमालाप और कामुक चेष्टानों से क्या नफरत हो गयी है ? और क्या, योगी का आन्तरिक प्रसन्नता से सराबोर और अात्मस्वरूप की रमणता वाला जीवन ललचाता है ? तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करता है ? __तब निःसन्देह तुम 'योगी' बनने लायक हो । तुम्हे कदम-कदम पर योगो-जीवन के परमानन्द का अनुभव होगा । अभिमान का नशा काफूर हो जाएगा और आत्मा के अनत गुण प्रकट हो जायेंगे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org