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शास्त्र
कर्ता का विस्मरण ? सरासर झूठ है। कर्ता का स्मरण अवश्य होगा। एक बार वीतराग को स्मृति पथ में ले आये कि समझ लो उन की सारी शक्ति तुम्हारी खुद की हो गयी । तब भला, ऐसा कौन सा कार्य है, जो वीतराग की अनंत शक्ति के सामने असाध्य है ? पूज्यपाद् हरिभद्रसूरिजी ने अपने 'षोडशक' ग्रन्थ में कहा है :
अस्मिन हृदयस्थे सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनिन्द्र इति ।
हृदयस्थिते च तस्मिन् नियमात् सर्वार्थसिद्धयः ॥ "जब तीर्थंकर प्रणीत आगम हृदय में हो तब परमार्थ में तीर्थंकर भगवंत स्वयं हृदय में विराजमान हैं, क्योंकि वे उस के स्वतंत्र प्रणेता हैं। इसी तरह तीर्थकर भगवंत साक्षात् हृदय में हैं तब सकल अर्थ की सिद्धि होती ही है ।
जो कुछ बोलना, सोचना, समझना और चिंतन करना वह जिनप्रणीत आगम के आधार पर । "मेरे प्रभु ने इस तरह से सोचने, समझने और चिंतन करने का आदेश दिया है ।" यह विचार रोम-रोम में समा जाना चाहिए।
क्षणार्ध के लिए भी जिनेश्वर भगवान का विस्मरण न हो....! वे (भगवंत) अचिंत्य चिंतामरिण-रत्न हैं । भवसागर के शक्तिशाली जलयान हैं ! एकमेव शरण्य हैं । ऐसे परमकृपालु, दयासिंधु करूणानिधि परमात्मा का निरंतर स्मरण शास्त्र-स्वाध्याय के माध्यम से सतत रहे। शास्त्र का स्मरण होते ही अनायास शास्त्र के उपदेशक परमात्मा का स्मरण होना ही चाहिए ।
जिनेश्वर भगवान का प्रभाव अद्भुत है। राग और द्वेष से रहित । परमात्मा, उनका स्मरण करनेवाले आत्मा को दुःख की दाहक ज्वाला से बचाते हैं ! चिन्तामणि रत्न में भला कहाँ रागद्वेष होता है ? फिर भी विधिपूर्वक पूजापाठ और उपासना कर ध्यान करने वाले की मनोकामना पूरी होती है । परमात्मा का आत्म-द्रव्य ही इतना प्रबल प्रभावी और शक्तिशाली है कि उनका नाम, स्थापना-द्रव्य और भाव से स्मरण करे तो निःसंदेह सर्व कार्य की सिद्धि होती है ! * चार निक्षेपों का स्वरुप परिशिष्ट में देखिए ।
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