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१८.
अनात्मशंसा
आज जब स्वप्रशंसा के ढोल सर्वत्र बज रहे हैं और पर- निंदा करना हर एक के लिये एक शौक / फैशन बन गयी है, ऐसे में प्रस्तुत अध्याय तुम्हें एक अभिनव दृष्टि, नया दृष्टिकोण प्रदान करेगा । स्व के प्रति और अन्य के प्रति देखने की एक अनोखी कला सिखाएगा । यदि स्वप्रशंसा में आकंठ अहर्निश डूबे मनुष्य को पूज्यपाद उपाध्यायजी की यह दृष्टि पसन्द आ जाए, उसे आत्मसात् करने की बुद्धि पैदा हो जाए, तो निःसन्देह उसमें मानवता की मीठी महक फैल जायेगी ।
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