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________________ निर्भयता २४७ ज्वालाओं को शांत-प्रशांत कर दिया है, साथ ही अपनी दृष्टि को स बना दिया है, ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या का अतुल बल जिसने प्राप्त कर लिया है, लोक व्यापार और आचार-विचारों को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी है, ऐसे महामुनि को भला भय कैसा ? उसे किसी बात का डर नहीं होता । बल्कि वह तो निर्भय और नित्यानंदी होता है ! अक्षय ज्ञान - साम्राज्य में भय का नामोनिशान तक नहीं होता है ! ज्ञान-साम्राज्य के उस पार भय, शोक, और उद्वेग होता है ! मुनिराज को सिर्फ एक बात की सावधानी / दक्षता रखनी चाहिए कि भूलकर भी कभी वह ज्ञान - साम्राज्य की सीमाओं के उस पार न चला जाए ! वह अपने राज्य में सदा निर्भय होता है । साथ ही उक्त साम्राज्य के नागरिकों का वह एकमेव अभयदाता है । वास्तव में देखा जाए तो अभय का आनन्द ही सही आनन्द है । भयभीत अवस्था में आनन्द नहीं होता, बल्कि उसका अस्पष्ट आभास मात्र होता है, कृत्रिम आनन्द होता है । अखंड ज्ञान-साम्राज्य में ही अभय का आनन्द प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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