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अनात्मशंसा
गुणैर्यदि न पूरणों ऽसि, कृतमात्मप्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत, कृतमात्मप्रशंसा ॥१॥। १३७ ।।
अर्थ :- यदि तुम स्व-गुणों से परिपूर्ण नहीं हो, तब आत्म-प्रशंसा का क्या मतलव ? ठीक वैसे ही, यदि तुम स्व-गुणों से परिपूर्ण हो, तो फिर श्रात्मषशंसा की जरुरत ही नहीं है ।
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विवेचन :- प्रशंसा ! स्व-प्रशंसा ! मनुष्य मात्र में यह वृत्ति जन्मतः होती हैं । उसे अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है । जी भरकर स्व-प्रशंसा करना भी अच्छा लगता है । लेकिन यही वृत्ति अध्यात्ममार्ग में बाधक होती है । मोक्ष मार्ग की आराधना में 'स्व-प्रशंसा' सबसे बड़ा अवरोध है । अत: वह त्याज्य है ।
निःसंदेह तुम्हारे अन्दर अनंत गुणों से युक्त आत्मा वास कर रही है । तुम ज्ञानी हो, तुम दानवीर हो, तुम तपस्वी हो, तुम परोपकारी हो, तुम ब्रह्मचारी हो, फिर भी तुम्हें अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और ना ही सुननी चाहिये । क्योंकि स्व-प्रशंसा से उत्पन्न प्रानंद तुम्हें उन्मत्त और मदहोश बना देगा । परिणाम स्वरुप अध्यात्म मार्ग से तुम भ्रष्ट हो जाओगे । तुम्हारा अधःपात होते बिलम्ब नहीं होगा । यदि तुम अपनेआप में गुणी हो, तब भला तुम्हें 'आत्म-प्रशंसा' की गरज ही क्या है ? श्रात्मप्रशंसा के कारण तुम्हारे गुणों में वृद्धि होने वाली नहीं, बल्कि उनके नामशेष हो जाने का डर है ।
'मेरे सत्कार्यों से लोग परिचित हों, मेरे में रहे गुरणों की जानकारी दूसरों को हो...., लोग मुझे सच्चरित्र, सज्जन समझें...." आदि इच्छा, अभिलाषा के कारण ही मनुष्य ग्रात्म-प्रशंसा करने के लिए प्रेरित होता है । इसमें उसे अपनी भूल नहीं लगती, ना ही वह किसी प्रकार का पाप समझता है । भले ही वह न समझे ! संभव है साधना, उपासना और आराधना - मार्ग का जो पथिक न हो, वह उसे पाप अथवा भूल न भी समझे ! लेकिन जिसे मोक्ष मार्ग की साधना से आनन्दामृत की प्राप्ति होती है, आत्म-स्वरुप की उपासना मात्र से आनंद की डकारें आती हैं, उसे 'स्व-प्रशंसा, आत्म-प्रशंसा' की मिध्यावृत्ति अपनाने का कभी विचार तक नहीं आता । 'स्व-प्रशंसा' उस के लिए पाप ही नहीं afe महापाप है और उससे प्राप्त आनंद कृत्रिम और क्षणिक होता है ।
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