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सृति
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इसके लिये परम पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'शांतरस का आस्वाद' शीर्षक का प्रयोग किया है । 'साहित्य दर्पण' में शांतरस के लिए विविध छह विशेषणों का उपयोग किया गया है :
सत्त्वोद्रक :- बाह्य विषयों से विमुख कराने वाला कोई प्रांतरिक धर्म अर्थात् सत्त्व । सत्त्व का उद्गम रज और तम भाव के पराभव के पश्चात् होता है और इसी में से सत्व के उत्कट भाव का प्रगटीकरण होता है । तथाविध प्रलौकिक काव्यार्थ का परिशीलन सत्त्वोद्रेक का मुख्य हेतु बनता है ।
अखंड :
विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थायो, ये चारों भाव एकात्मक (ज्ञान और सुख स्वरूप ) रूप धारण कर लेते हैं, जो परम आह्लादक और चमत्कारिक सिद्ध होते हैं ।
स्वप्रकाशत्व :- रस स्वयं में ही ज्ञान स्वरूप स्वप्रकाशित है
प्रानन्द :- रस सर्वथा आनन्द रूप है ।
चिन्मय : रस स्वयं सुखमय है । लोकोत्तरचमत्कारप्राण :- विस्मय का प्रारण ही रस है ।
'स्वाद' की परिभाषा करते हुए स्वयं 'साहित्यदर्पण'कार ने लिखा है कि 'स्वाद: काव्यार्थसम्भेदादात्मानन्दसमुद्भवः' काव्यार्थ के परिशीलन से होने वाले आत्मानन्द के समुद्भव का अर्थ ही स्वाद है । शांतरस के महाकाव्यों के परिशीलन से पैदा हुआ स्वाद और उससे उत्पन्न महान् अतीन्द्रिय तृप्ति, षड्रसयुक्त मिष्टान्न भोजन से प्राप्त क्षणिक तृप्ति से बढ़कर होती है ।
यहाँ षड्स की तृप्ति उपमा है और ज्ञान-तृप्ति उपमेय । प्रस्तुत में 'व्यतिरेकालंकार' रहा हुआ है । 'व्यतिरेकालंकार' का वर्णन 'वाग्भटालंकार' ग्रन्थ में निम्नानुसार किया गया है
:--
केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयो संसिद्धसाम्ययो: । भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ||
किसी भी धर्म में उपमान अथवा उपमेय की विशेषता होती है, तब इस अलंकार का सृजन हो जाता है । प्रस्तुत में उपमेय 'ज्ञानतृप्ति' में विशेषता का निरुपण किया गया है ।
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